Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 36 भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 36 अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।4.36।।   हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 4.36) ।।4.36।।अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापसमुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।4.36।। व्याख्या   अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः पाप करनेवालोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं (1) पापकृत् अर्थात् पाप करनेवाला (2) पापकृत्तर अर्थात् दो पापियोंमें एकसे अधिक पाप करनेवाला और (3) पापकृत्तम अर्थात् सम्पूर्ण पापियोंमें सबसे अधिक पाप करनेवाला। यहाँ पापकृत्तमः पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियोंमें भी अत्यन्त पाप करनेवाला है तो भी तत्त्वज्ञानसे तू सम्पूर्ण पापोंसे तर सकता है।भगवान्का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापोंका त्याग करके साधनमें लगा हुआ है उसका तो कहना ही क्या है पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद अपने उद्धारके विषयमें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापीसेपापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा तो उसके पापोंका नाश होते देरी नहीं लगती।यदि कहीं सौ वर्षोंसे घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय तो उस अँधेरेको दूर करके प्रकाश करनेमें दीपकको सौ वर्ष नहीं लगते प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।चेत् (यदि) पद देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मामें नहीं लगते परन्तु वे परमात्मामें लग नहीं सकते ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुषके सङ्गसे अथवा किसी घटना परिस्थिति वातावरण आदिके प्रभावसे यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना ही है तो वे भी सम्पूर्ण पापसमुद्रसे भलीभाँति तर जाते हैं।नवें अध्यायके तीसवेंइकतीसवें श्लोकोंमें भी भगवान् ऐसी ही बात अनन्यभावसे अपना भजन करनेवालेके लिये कही है कि महान् दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान्का भजन ही करूँगा तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है।सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि प्रकृतिके कार्य शरीर और संसारके सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण पाप होते हैं। तत्त्वज्ञान होनेपर जब इनसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है तब पाप कैसे रह सकते हैं मूलाभावे कुतः शाखा परमात्माके स्वतःसिद्ध ज्ञानके साथ एक होना ही ज्ञानप्लव अर्थात् ज्ञानरूप नौकाका प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो ज्ञानरूप नौकासे वह सम्पूर्ण पापसमुद्रसे अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटतीफूटती नहीं इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्यको पापसमुद्रसे पार करा देती है।ज्ञानयज्ञ (4। 33) से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ आरम्भसे ही विवेक को लेकर चलता है और तत्त्वज्ञान में इसकी पूर्णता हो जाती है। पूर्णता होनेपर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता।