Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 34 भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।4.34।। उस (ज्ञान) को (गुरु के समीप जाकर) साष्टांग प्रणिपात प्रश्न तथा सेवा करके जानो ये तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।4.34।। जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का उपदेश अनिवार्य है। उस ज्ञानोपदेश को देने के लिए गुरु का जिन गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है उन्हें इस श्लोक में बताया गया है। गुरु के उपदेश से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए शिष्य में जिस भावना तथा बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है उसका भी यहाँ वर्णन किया गया है।प्रणिपातेन वैसे तो साष्टांग दण्डवत शरीर से किया जाता है परन्तु यहाँ प्रणिपात से शिष्य का प्रपन्नभाव और नम्रता गुरु के प्रति आदर एवं आज्ञाकारिता अभिप्रेत है। सामान्यत लोगों को अपने ही विषय में पूर्ण अज्ञान होता है। वे न तो अपने मन की प्रवृत्तियों को जानते हैं और न ही मनसंयम की साधना को। अत उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे गुरु के समीप रहकर उनके दिये उपदेशों को समझने तथा उसके अनुसार आचरण करने में सदा तत्पर रहें।जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके।परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे सत्संग कहते हैं। विश्व के सभी धर्मों में शिष्य को यह विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। वास्तव में केवल वेदान्त दर्शन ही हमारी बुद्धि को पूर्ण स्वतन्त्रता देता है। उसका व्यापार साधकों की अन्धश्रद्धा पर नहीं चलता। अन्य धर्मों में श्रद्धा का अत्याधिक महत्व होने के कारण उनके धर्मग्रन्थों में बौद्धिक दृष्टि से अनेक त्रुटियां रह गयी हैं जिनका समाधानकारक उत्तर नहीं मिलता। अत उनके धर्मगुरुओं के लिये आवश्यक है कि शास्त्र संबन्धी प्रश्नों को पूछने के अधिकार से साधकों को वंचित रखा जाय।सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती।शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ होना आवश्यक है।उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। अस्तु निम्नलिखित कथन भी सत्य ही है कि