Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 30 भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 30 अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।4.30।। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो आहार संयम के द्वारा कामक्रोधादि से उत्पन्न मन की उत्तेजनाओं को संयमित करने का अभ्यास करते हैं। भारत में आहार संयम की विधि अपरिचित और नई नहीं है। प्राचीन ऋषियों को अन्न के पोषक तत्त्वों के विषय में पूर्ण ज्ञान था। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के स्वभाव एवं कार्यों के लिए उपयुक्त शाकसब्जियों तथा धान्यों का भी वैज्ञानिक पद्धति से वर्गीकरण किया था। केवल विचार ही नहीं वरन् उन्होंने प्रयोग करके यह दर्शाया भी था कि आहार संयम के द्वारा किस प्रकार मनुष्य अपने गुणों तथा व्यवहार को परिष्कृत करके सांस्कृतिक उन्नति कर सकता है।यज्ञविद शब्द से तात्पर्य उन साधकों से है जो उपर्युक्त साधनों को समझ कर उनमें से सभी अथवा कुछ साधनों का ही अभ्यास निस्वार्थ भावना से करते हैं। ऐसे ही लोग इनसे लाभान्वित होंगे। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ के द्वारा मनुष्य पापमुक्त होगा और न कि इनसे सीधे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।देहादि अनात्म पदार्थों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंका देह तथा बाह्य विषयों में आसक्त हुआ अनेक प्रकार के संकल्प करता रहता है। इन संकल्पों के अनुरूप ही कर्म और फलोपभोग से वासनायें उत्पन्न होती हैं जो सदैव मनुष्य को विषयों में प्रवृत्त करती हैं। यही पाप है जो मनुष्य को पशु के स्तर तक गिरा देता है। उपर्युक्त यज्ञों के अनुष्ठान से न केवल विद्यमान वासनायें नष्ट होती हैं वरन् नवीन विनाशकारी वासनायें भी नहीं उत्पन्न होती।संक्षेप में निष्कर्ष निकलता है कि ये समस्त यज्ञ साध्य न होकर अन्तकरण की शुद्धि के साधनमात्र हैं। चित्त शुद्ध होने पर निदिध्यासन के अभ्यास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अनेक साधक लोग अज्ञानवश किसी एक विशेष साधना में ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि उनकी आगे की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।इन सभी यज्ञों में पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं का प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् कहते हैं