Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 12 भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 12 काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 4.12) ।।4.12।।कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं क्योंकि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।4.12।। (सामान्य मनुष्य) यहाँ (इस लोक में) कर्मों के फल को चाहते हुये देवताओं को पूजते हैं क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र ही प्राप्त होते हैं।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी  4.12।। व्याख्या   काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः मनुष्यको नवीन कर्म करनेका अधिकार मिला हुआ है। कर्म करनेसे ही सिद्धि होती है ऐसा प्रत्यक्ष देखनेमें आता है। इस कारण मनुष्यके अन्तःकरणमें यह बात दृढ़तासे बैठी हुई है कि कर्म किये बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती। वे ऐसा समझते हैं कि सांसारिक वस्तुओंकी तरह भगवान्की प्राप्ति भी कर्म (तप ध्यान समाधि आदि) करनेसे ही होती है। नाशवान् पदार्थोंकी कामनाओंके कारण उनकी दृष्टि इस वास्तविकताकी ओर जाती ही नहीं कि सांसारिक वस्तुएँ कर्मजन्य हैं एकदेशीय हैं हमें नित्य प्राप्त नहीं हैं हमारेसे अलग हैं और परिवर्तनशील हैं इसलिये उनकी प्राप्तिके लिये कर्म करने आवश्यक हैं। परन्तु भगवान् कर्मजन्य नहीं हैं सर्वत्र परिपूर्ण हैं हमें नित्यप्राप्त हैं हमारेसे अलग नहीं हैं और अपरिवर्तनशील हैं इसलिये भगवत्प्राप्तिमें सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिका नियम नहीं चल सकता। भगवत्प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषासे होती है। उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न होनेमें खास कारण सांसारिक भोगोंकी कामना ही है।भगवान् तो पिताके समान हैं और देवता दूकानदारके समान। अगर दूकानदार वस्तु न दे तो उसको पैसे लेनेका अधिकार नहीं है परन्तु पिताको पैसे लेनेका भी अधिकार है और वस्तु देनेका भी। बालकको पितासे कोई वस्तु लेनेके लिये कोई मूल्य नहीं देना पड़ता पर दूकानदारसे वस्तु लेनेके लिये मूल्य देना पड़ता है। ऐसे ही भगवान्से कुछ लेनेके लिये कोई मूल्य देनेकी जरूरत नहीं है परन्तु देवताओंसे कुछ प्राप्त करनेके लिये विधिपूर्वक कर्म करने पड़ते हैं। दूकानदारसे बालक दियासलाई चाकू आदि हानिकारक वस्तुएँ भी पैसे देकर खरीद सकता है परन्तु यदि वह पितासे ऐसी हानिकारक वस्तुएँ माँगे तो वे उसे नहीं देंगे और पैसे भी ले लेंगे। पिता वही वस्तु देते हैं जिसमें बालकका हित हो। इसी प्रकार देवतालोग अपने उपासकोंको (उनकी उपासना साङ्गोपाङ्ग होनेपर) उनके हितअहितका विचार किये बिना उनकी इच्छित वस्तुएँ दे देते हैं परन्तु परमपिता भगवान् अपने भक्तोंको अपनी इच्छासे वे ही वस्तुएँ देते हैं जिसमें उनका परमहित हो। ऐसे होनेपर भी नाशवान् पदार्थोंकी आसक्ति ममता और कामनाके कारण अल्पबुद्धिवाले मनुष्य भगवान्की महत्ता और सुहृत्ताको नहीं जानते इसलिये वे अज्ञानवश देवताओंकी उपासना करते हैं (गीता 7। 20 23 9। 23 24)।क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके (गीता 15। 2)। इसके सिवाय दूसरे लोक (स्वर्गनरकादि) भोगभूमियाँ हैं। मनुष्यलोकमें भी नया कर्म करनेका अधिकार मनुष्यको ही है पशुपक्षी आदिको नहीं। मनुष्यशरीरमें किये हुए कर्मोंका फल ही लोक तथा परलोकमें भोगा जाता है।मनुष्यलोकमें कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्य रहते हैं कर्मसङ्गिषु जायते (गीता 14। 15)। कर्मोंकी आसक्तिके कारण वे कर्मजन्य सिद्धिपर ही लुब्ध होते हैं। कर्मोंसे जो सिद्धि होती है वह यद्यपि शीघ्र मिल जाती है तथापि वह सदा रहनेवाली नहीं होती। जब कर्मोंका आदि और अन्त होता है तब उनसे होनेवाली सिद्धि (फल) सदा कैसे रह सकती है इसलिये नाशवान् कर्मोंका फल भी नाशवान् ही होता है। परन्तु कामनावाले मनुष्यकी दृष्टि शीघ्र मिलनेवाले फलपर तो जाती है पर उसके नाशकी ओर नहीं जाती। विधिपूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये गये कर्मोंका फल देवताओंसे शीघ्र मिल जाया करता है इसलिये वे देवताओंकी ही शरण लेते हैं और उन्हींकी आराधना करते हैं। कर्मजन्य फल चाहनेके कारण वे कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं होते और परिणामस्वरूप बारंबार जन्मतेमरते रहते हैं। जो वास्तविक सिद्धि है वह कर्मजन्य नहीं है। वास्तविक सिद्धि भगवत्प्राप्ति है। भगवत्प्राप्तिके साधन कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कर्मजन्य नहीं हैं। योगकी सिद्धि कर्मोंके द्वारा नहीं होती प्रत्युत कर्मोंके सम्बन्धविच्छेदसे होती है। शङ्का   कर्मयोग की सिद्धि तो कर्म करनेसे ही बतायी गयी है आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3) तो फिर कर्मयोग कर्मजन्य कैसे नहीं है  समाधान   कर्मयोगमें कर्मोंसे और कर्मसामग्रीसे सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये ही कर्म किये जाते हैं। योग (परमात्माका नित्यसम्बन्ध) तो स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है। अतः योग अथवा परमात्मप्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। वास्तवमें कर्म सत्य नहीं है प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके साधनरूप कर्मोंका विधान सत्य है। कोई भी कर्म जब सत्के लिये किया जाता है तब उसका परिणाम सत् होनेसे उस कर्मका नाम भी सत् हो जाता है कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते (गीता 17। 27)।अपने लिये कर्म करनेसे ही योग(परमात्माके साथ नित्ययोग) का अनुभव नहीं होता। कर्मयोगमें दूसरोंके लिये ही सब कर्म किये जाते हैं अपने लिये अर्थात् फलप्राप्तिके लिये नहीं कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (गीता 2। 47)। अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँधता है (गीता 3। 9) और दूसरोंके लिये कर्म करनेसे वह मुक्त होता है (गीता 4। 23)। कर्मयोगमें दूसरोंके लिये ही सब कर्म करनेसे कर्म और फलसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है जो योग का अनुभव करानेमें हेतु है।कर्म करनेमें पर अर्थात् शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ व्यक्ति देश काल आदि परिवर्तनशीलवस्तुओंकी सहायता लेनी पड़ती है। पर की सहायता लेना परतन्त्रता है। स्वरूप ज्योंकात्यों है। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिये उसकी अनुभूतिमें पर कहे जानेवाले शरीरादि पदार्थोंके सहयोगकी लेशमात्र भी अपेक्षा आवश्यकता नहीं है। पर से माने हुए सम्बन्धका त्याग होनेसे स्वरूपमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध   आठवें श्लोकमें अपने अवतारके उद्देश्यका वर्णन करके नवें श्लोकमें भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको जाननेका माहात्म्य बताया। कर्मजन्य सिद्धि चाहनेसे ही कर्मोंमें अदिव्यता (मलिनता) आती है। अतः कर्मोंमें दिव्यता (पवित्रता) कैसे आती है इसे बतानेके लिये अब भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका विशेष वर्णन करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।4.12।। सुकर्म अथवा दुष्कर्म करने के लिये आत्म चैतन्य अथवा ईश्वर की शक्ति की समान रूप से आवश्यकता है और वह उपलब्ध भी है। परन्तु मन की प्रवृत्ति बहिर्मुखी ही बनी रहने के कारण है इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने पर निम्न स्तर के सुख की संवेदनाओं में उसकी आसक्ति। इस प्रकार के सुख सरलता से प्राप्त भी हो जाते हैं।अनेक प्रयत्नों के बावजूद हम वैषयिक सुख में ही रमते हैं जिसका कारण भगवान् बताते हैं मनुष्य लोक में कर्म की सिद्धि शीघ्र ही होती है।इस जगत् में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाना सामान्य मनुष्य के लिये सरल प्रतीत होता है। वह सुख निकृष्ट होने पर भी बिना किसी प्रतिरोध के मिलता है और इस कारण सुख शान्ति की इच्छा करने वाला पुरुष अपनी आध्यात्मिक शक्ति को व्यर्थ ही इन वस्तुओं की प्राप्ति और भोग करने में खो देता है। इस कथन के सत्यत्व का हम सबको अनुभव है।उपर्युक्त विवरण का सम्बन्ध केवल लौकिक सामान्य भोगों में ही सीमित नहीं वरन् हमारी अन्य उपलब्धियों से भी है। वनस्पति एवं पशु जगत् की अपेक्षा हम सुनियोजित कर्मों के द्वारा प्रकृति को अपने लिये अधिक सुख प्रदान करने को बाध्य कर सकते हैं।जीवन के उत्कृष्ट एवं निकृष्ट मार्गों का अनुसरण करने वाले लोगों को हम उनकी अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के आधार पर विभाजित कर सकते हैं इन बहिर्मुखी लोगों का फिर चार प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है जिसका आधार है उनके विचार (गुण) और कर्म।