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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 27

भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 3.27)

।।3.27।।सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ ऐसा मानता है।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।3.27।। व्याख्या   प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः जिस समष्टि शक्तिसे शरीर वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़तेघटते हैं गङ्गा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होताहै उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना सुनना खानापीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं। परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ जैसे शरीरका बनना भोजनका पचना इत्यादि और दूसरी ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ जैसे देखना बोलना भोजन करना इत्यादि। ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपनेद्वारा की जानेवाली मान लेता है।प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों(सत्त्व रज और तम) का कार्य होनेसे बुद्धि अहंकार मन पञ्चमहाभूत दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं स्वरूपके द्वारा नहीं।अहंकारविमूढात्मा अहंकार अन्तःकरणकी एक वृत्ति है। स्वयं (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है। परन्तु भूलसे स्वयं को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है।जैसे शरीर इदम् (यह) है ऐसे ही अहंकार भी इदम् (यह) है। इदम् (यह) कभी अहम् (मैं) नहीं हो सकता यह सिद्धान्त है। जब मनुष्य भूलसे इदम् को अहम् अर्थात् यह को मैं मान लेता है तब वह अहंकारविमूढात्मा कहलाता है। यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है। माना हुआ अहंकार मिटता है अस्वीकृतिसे अर्थात् न मानने से।विशेष बातअहम् दो प्रकारका होता है (1) वास्तविक (आधाररूप) अहम् (टिप्पणी प0 161) जैसे मैं हूँ (अपनी सत्तामात्र)।(2) अवास्तविक (माना हुआ) अहम् जैसे मैं शरीर हूँ। वास्तविक अहम् स्वाभाविक एवं नित्य और अवास्तविक अहम् अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है। अतः वास्तविक अहम् विस्मृत तो हो सकता है पर मिट नहीं सकता और अवास्तविक अहम् प्रतीत तो हो सकता है पर टिक नहीं सकता। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह वास्तविक अहम्(अपने स्वरूप) को विस्मृत करके अवास्तविक अहम्(मैं शरीर हूँ) को ही सत्य मान लेता है।कर्ताहमिति मन्यते यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है। कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है। अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर इन्द्रियाँ मन आदिमेंमैंपन कर लेता है और उन(शरीरादि) की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है। यह विपरीत मान्यतामनुष्यने स्वयं की है इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है। इसको मिटानेका उपाय है इसे विवेकविचारपूर्वक न मानना क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है।एक करना होता है और एक न करना। जैसे करना क्रिया है ऐसे ही न करना भी क्रिया है। सोना जागना बैठना चलना समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं। क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है। स्वयं(चेतन स्वरूप) में करना और न करना दोनों ही नहीं हैं क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है। वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है। यदि स्वयं में भी क्रिया होती तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूपक्रियाओं) का ज्ञाता कैसे होता करना और न करना वहाँ होता है जहाँ अहम् (मैं) रहता है। अहम् न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। करना और न करना दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप) में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु अहम् के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्रकृति(जड) से माना हुआ सम्बन्ध ही अहम् कहलाता है।विशेष बातजिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है उसी जातिका समुद्र है उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है। मनुष्य संसारको तो मैं नहीं मानता पर भूलसे शरीरको मैं मान लेता है।जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरको मैं (अपना स्वरूप) मान लेता है तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जैसे मुझे स्त्री पुत्र धन आदि पदार्थ मिल जायँ लोग मुझे अच्छा समझें मेरा आदरसम्मान करें मेरे अनुकूल चलें इत्यादि। उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ।साधनकालमें मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है यह सिद्धान्त है। इसी बातको भगवान्ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्लोकमें नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंमें मन्येत पदसे प्रकट किया है कि मैं कर्ता हूँ इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये मैं कुछ भी नहीं करता ऐसी वास्तविक मान्यता करना होगी। मैं शरीर हूँ मैं कर्ता हूँ आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है फिर मैं शरीर नहीं हूँ मैं अकर्ता हूँ आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी