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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 23

भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।3.23।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।3.23।। यदि मैं सावधान हुआ (अतन्द्रित) कदाचित कर्म में न लगा रहूँ तो हे पार्थ सब प्रकार से मनुष्य मेरे मार्ग (र्वत्म) का अनुसरण करेंगे।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।3.23।। भगवान् को कर्म क्यों करने चाहिये उनके कर्म न करने से समाज को क्या हानि होगी यह वस्तुस्थिति है कि सामान्य जन सदैव अपने नेता का अनुकरण उसकी वेषभूषा नैतिक मूल्य कर्म और सभी क्षेत्रों में उसके व्यवहार के अनुसार करते हैं। नेताओं का जीवन उनके लिये आदर्श मापदण्ड होता है। अत भगवान् के कर्म न करने पर अन्य लोग भी निष्क्रिय होकर अनुत्पादक स्थिति में पड़े रहेंगे। जबकि प्रकृति में निरन्तर क्रियाशीलता दिखाई देती है। सम्पूर्ण विश्व की स्थिति कर्म पर ही आश्रित है।गीता में भगवान् मैं शब्द का प्रयोग देवकी पुत्र कृष्ण के अर्थ में नहीं करते वरन् शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि से आत्मानुभवी पुरुष के अर्थ में करते हैं। आत्मज्ञानी पुरुष अपने उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानता है जिस पर जड़ अनात्म पदार्थों का खेल हो रहा होता है जैसे जाग्रत पुरुष के मन पर आश्रित स्वप्न। यदि इस परम तत्त्व का नित्य आधार या अधिष्ठान न हो तो वर्तमान में अनुभूत जगत् का अस्तित्व ही बना नहीं रह सकता। यद्यपि लहरों की उत्पत्ति से समुद्र उत्पन्न नहीं होता तथापि समुद्र के बिना लहरों का नृत्य भी सम्भव नहीं है। इसी प्रकार भगवान् क्रियाशील रहकर जगत् में न रहें तो समाज का सांस्कृतिक जीवन ही गतिहीन होकर रह जाय्ोगा।यदि मैं कर्म न करूँ तो क्या हानि होगी भगवान् आगे कहते हैं।