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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 16

भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।3.16।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।3.16।। जो पुरुष यहाँ इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र का अनुवर्तन नहीं करता हे पार्थ इंन्द्रियों में रमने वाला वह पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।3.16।। खनिज वनस्पति एवं पशु जगत् के समस्त सदस्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से ही यज्ञ भावना का पालन करते हुए प्रकृति में प्रवर्तित कर्मचक्र के निर्विघ्न चलने में अपना योगदान देते हैं। केवल मनुष्य को ही यह स्वतन्त्रता है कि चाहे तो वह इसका पालन करे अथवा विरोध। जब तक किसी पीढ़ी के अधिकसेअधिक लोग सामंजस्यकेनियम के अनुसार जीवन जीते हैं तब तक उतनी ही अधिक मात्रा में वे सुख समृद्धि से सम्पन्न होकर रहते हैं। ऐसे काल को ही सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का स्वर्ण युग कहा जाता है।परन्तु सभी मनुष्यों के लिये सदैव यह सम्भव नहीं होता कि वे इस सनातन नियम का दृढ़तापूर्वक पालन कर सकें। इतिहास के किसीकिसी काल में मनुष्य इस नियम के विरुद्ध खड़ा हो जाता है और तब जीवन में शांति और विकास का राज्य विखरता हुआ अन्त में मात्र खण्डहर रह जाता है। ऐसे तिमिराच्छन्न युग निराशा और अशांति युद्ध और महामारी बाढ़ और अकाल से प्रताड़ित और त्रस्त युग होते हैं।स्वाभाविक ही मन में यह प्रश्न उठता है कि सुख शान्ति का उज्ज्वल दिवस अस्त होकर जगत् में निराशा और अविवेक की अन्धकारपूर्ण रात्रि आने का क्या कारण है इसका उत्तर गीता में दिया गया हुआ है।व्यक्तियों से समाज बनता है। किसी समाज की उपलब्धियों के कारण हम उसे कितना ही गौरवान्वित करें फिर भी समाज के निर्माता व्यक्तियों के व्यक्तिगत योगदान की अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्तियों के योग्य होने पर समाज सरलता से आगे बढ़ता है। परन्तु इकाई रूप व्यक्तियों का त्रुटिपूर्णसंगठन होने पर सम्पूर्ण समाज रूपी महल ही ढह जाता है। मनुष्य का विनाशकारी जीवन प्रारम्भ होता है उसके अत्यधिक इन्द्रियों के विषय में रमने से देह को ही अपना स्वरूप समझकर उसके पोषण एवं सुखसुविधाओं का ध्यान रखने में ही वे व्यस्त हो जाते हैं। अत्यधिक देहासक्ति के कारण वे पशुवत विषयोपभोग के अतिरिक्त जीवन का अन्य श्रेष्ठ लक्ष्य ही नहीं जानते और इसलिये उच्च जीवन जीने के मार्ग के ज्ञान की भी उन्हे कोई आवश्यकता अनुभव नहीं होती।ऐसे युग में कोई भी व्यक्ति यज्ञ की भावना से कर्म करने में प्रवृत्त नहीं होता जिसके बिना उत्पादन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ (पर्जन्य) नहीं बनतीं जिससे कि उत्पादन क्षमता (देव) आनन्ददायक पोषक वस्तुओं (अन्न) के रूप में प्रगट हो सकें। विषयों के भोगियों को यहां इन्द्रिया रामा कहा गया जिनमें से प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही भोग की चिन्ता करता है और अनजाने ही विश्व के कर्मचक्र में घर्षण उत्पन्न करता है। इन लोगों का जीवन पापपूर्ण माना गया है और गीता का कथन है वे व्यर्थ ही जीते हैं।अब एक प्रश्न है क्या इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का पालन सबको अनिवार्य है अथवा केवल उसके लिये जिसे ज्ञानयोग में अभी निष्ठा प्राप्त नहीं हुई है उत्तर में भगवान् कहते हैं