Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 1 भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 1 अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 3.1) ।।3.1 3.2।।अर्जुन बोले हे जनार्दन अगर आप कर्मसे बुद्धि(ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे केशव मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं आप अपने मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहितसी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके एक बात कहिये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।3.1।। हे जनार्दन यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते हैं हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।3.1।। व्याख्या   जनार्दन इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसात्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्यत्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्यकर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैंभगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें बुद्धिर्योगे पदसे समबुद्धि(समता) की ही बात कही थी परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन आपने पहले कहा कि मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा। परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि बुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है उत्तम है तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ दान तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्धजैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े क्यों लगा रहे हैंपहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि हे अच्युत दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है। परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि तू इन कुरुवंशियोंको देख तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी क्योंकि ज्ञानमें युद्धजैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैंयहाँ बुद्धिः पदका अर्थ ज्ञान लिया गया है। अगर यहाँ बुद्धिः पदका अर्थ समबुद्धि (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग(समता) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं दूसरी बात भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें बुद्धिः पदका अर्थ ज्ञान लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्धजैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैंऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है।व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे कुरु कर्माणि (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो बुद्धौ शरणमन्विच्छ (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहितसी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार इव पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीकठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुएसे लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहतिसी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौनतदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ। सम्बन्ध   अब आगेके तीन (तीसरे चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके व्यामिश्रेणेव वाक्येन (मिले हुएसे वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।3.1।। अभी भी अर्जुन का यही विश्वास है कि गुरुजन पितामह आदि के साथ युद्ध करना भयानक कर्म है। लगता है अर्जुन या तो भगवान् के उपदेश को भूल गया है या वह उसे कभी समझ ही नहीं पाया था। श्रीकृष्ण ने यह बिल्कुल स्पष्ट किया था कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन गुरुजनों को मारने वाला नहीं था क्योंकि यह युद्ध व्यक्तियों के बीच न होकर दो सिद्धांतों के मध्य था। पाण्डवों का पक्ष धर्म और नैतिकता का था। परन्तु दुर्भाग्यवश अर्जुन अपने अहंकार को भूलकर अपने पक्ष के साथ एकरूप नहीं हो पाया। जिस मात्रा में वह आदर्श के साथ तादात्म्य नहीं कर पाया उस मात्रा में उसका अहंकार बना रहा और युद्ध करने में उसे नैतिक दोष दिखाई दिया।इस श्लोक में अर्जुन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि श्रीकृष्ण के तर्कसंन्यासमार्ग का ही अनुमोदन कर रहे थे परन्तु उसे भयंकर कर्म में प्रवृत्त किया जा रहा था।