Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 72 भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 72 एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.72) ।।2.72।।हे पृथानन्दन यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।2.72।। व्याख्या  एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ  यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी स्थिति है। अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है  तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती।अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ  एषा  पद पूर्वश्लोकमें आये  विहाय कामान्   निःस्पृहः निर्ममः  और  निरहङ्कारः  पदोंका लक्ष्य करता है।भगवान्के मुखसे तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी तब तू योगको प्राप्त हो जायगा ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोगकी प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ  पार्थ  सम्बोधन दिया गया है। नैनां प्राप्य विमुह्यति   जबतक शरीरमें अहंकार रहता है तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु जब अहंकारका सर्वथा अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं रहती।सत् और असत्को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत्के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत्को ठीक तरहसे जान लेता है तब असत्से उसका सम्बन्धविच्छेद हो जाता है  (टिप्पणी प0 109)  और सत्में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। इस स्थितिका अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता 4। 35)। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति   यह मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। इसलिये भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारणसेसाधारण और पापीसेपापी व्यक्ति ही क्यों न हो अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्धविच्छेद कर ले तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी वह जन्ममरणसे मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त हो जाते हैं। आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है वह मेरेको ही प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं है। दूसरी बात उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धिके विषयमें भगवान्ने कहा था कि इसका थोड़ासा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है (2। 40) ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय जडतासे सम्बन्धविच्छेद हो जाय तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस स्थितिका अनुभव होनेमें जडताका राग ही बाधक है। यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ वह अन्तकालमें कैसे होगा अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी विचारशक्ति होगी सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है सावधानी नहीं रहती ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनूभव कैसे होगा इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं तब शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्धविच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्वकी तरफ लक्ष्य हो जाय तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि विवेक आदिकी आवश्यकता है पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है  (टिप्पणी प0 110) । वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है।यहाँ  अपि  पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवितअवस्थामें यह स्थिति प्राप्ति कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्ममनिरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने ध्यान करने समाधि लगानेकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।भगवान्ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें  ब्रह्मनिर्वाणम्  पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता 5। 2426) ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगी द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है। विशेष बात  जड और चेतन ये दो पदार्थ है। प्राणिमात्रका स्वरूप चेतन है पर उसने जडका सङ्ग किया हुआ है। जडकी तरफ आकर्षण होना पतनकी तरफ जाना है और चिन्मयतत्त्वकी तरफ आकर्षण होना उत्थानकी तरफ जाना है अपना कल्याण करना है। जडकी तरफ जानेमें मोह की मुख्यता होती है और परमात्मतत्त्वकी तरफ जानेमें विवेक की मुख्यता होती है।समझनेकी दृष्टिसे मोह और विवेकके दोदो विभाग कर सकते हैं (1) अहंताममातयुक्त मोह एवं कामनायुक्त मोह (2) सत्असत्का विवेक एवं कर्तव्यअकर्तव्यका विवेक।प्राप्त वस्तु शरीरादिमें अहंताममता करना यह अहंताममतायुक्त मोह है और अप्राप्त वस्तु घटना परिस्थिति आदिकी कामना करना यह कामनायुक्त मोह है। शरीरी (शरीरमें रहनेवाला) अलग है और शरीर अलग है शरीरी सत् है और शरीर असत् है शरीरी चेतन है और शरीर जड है इसको ठीक तरहसे अलगअलग जानना सत्असत्का विवेक है और कर्तव्य क्या है अकर्तव्य क्या है धर्म क्या है अधर्म क्या है इसको ठीक तरहसे समझकर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्यका त्याग करना कर्तव्यअकर्तव्यका विवेक है।पहले अध्यायमें अर्जुनको भी दो प्रकारका मोह हो गया था जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं। अहंताको लेकर हम दोषोंको जाननेवाले धर्मात्मा है और ममताको लेकर ये कुटुम्बी मर जायँगे यह अहंताममतायुक्त मोह हुआ। हमें पाप न लगे कुलके नाशका दोष न लगे मित्रद्रोहका पाप न लगे नरकोंमें न जाना पड़े हमारे पितरोंका पतन न हो यह कामनायुक्त मोह हुआ।उपर्युक्त दोनों प्रकारके मोहको दूर करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें दो प्रकारका विवेक बताया है शरीरीशरीरका सत्असत्का विवेक (2। 11 30) और कर्तव्यअकर्तव्यका विवेक (2। 31 53)।शरीरीशरीरका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि मैं तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीचमें भी प्रतिक्षण बदल रहे हैं। जैसे शरीरमें कुमार युवा और वृद्धावस्था ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है ऐसे ही जीव पहले शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है यह तो अकाट्य नियम है। इसमें चिन्ताकी शोककी बात ही क्या है कर्तव्यअकर्तव्यका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्तिका खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तुझे पाप लगेगा। यदि तू जयपराजय लाभहानि और सुखदुःख को समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है फलमें कभी नहीं। तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें सम होकर और समतामें स्थित होकर कर्मोंको कर क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धिसे युक्त होकर कर्म करता है वह जीवितअवस्थामें ही पुण्यपापसे रहित हो जाता है।जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको और श्रुतिविप्रतिपत्तिको पार कर जायगी तब तू योगको प्राप्त हो जायगा। इस प्रकार ँ़ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या औ योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।2।।  हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।2.72।। सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग। अहंकार रहित अवस्था निष्क्रिय अर्थहीन शून्य नहीं है। जहाँ भ्रान्तिजनित अहंकार समाप्त हुआ वहीं पर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित होता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अत इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।यहाँ एक शंका उठ सकती है कि क्या आत्मानुभव के पश्चात् भी हमें पुन मोहित होकर अहंकार से उत्पन्न दुखों का भोग हो सकता है ऐसे किसी पुनर्मोह का यहाँ निषेध करके भगवान् हमारे भय को दूर कर देते हैं और भी एक बात है कि आत्मसाक्षात्कार का युवावस्था में ही होना आवश्यक नहीं हैं। वृद्धावस्था अथवा जीवन के अन्तिम क्षणों में भी यदि मनुष्य अपने स्वयंसिद्ध नित्य स्वरूप को पहचान लेता है तब भी वह अनुभव ब्राह्मी स्थिति के लिए पर्याप्त है।मिथ्या का निषेध और सत्य का प्रतिपादन यही वह मार्ग है जिसका उपनिषदों में आत्मप्राप्ति के लिए उपदेश है। कर्मयोग उस ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है जिसका निरूपण व्यासजी ने गीता में अपनी मौलिक शैली में किया है। अनासक्त भाव से सिद्धि और असिद्धि में समान रहते हुए कर्म करने का अर्थ है अहंकार के अधिकार को ही समाप्त करना और इस प्रकार अनजाने ही वहाँ उच्चतर सत्य की स्थापना करना। अस्तु वेदान्त के निदिध्यासन से गीता में वर्णित कर्मयोग की साधना भिन्न नहीं है। परन्तु अर्जुन भगवान् के केवल वाच्यार्थ को ही ग्रहण करता है और उसके मन में एक सन्देह उत्पन्न होता है जिसे वह तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में व्यक्त करता है। अत अगले अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायांयोगाशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम द्वितीयोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त होता है।कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन के अर्थ में इस अध्याय का नाम सांख्ययोग नहीं है। यहाँ सांख्य शब्द का प्रयोग उसकी व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है जिसके अनुसार सांख्य का अर्थ हैं किसी विषय का युक्तियुक्त वह विवेचन जिसमें अनेक तर्क प्रस्तुत करने के पश्चात् किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर हम पहुँचते हैं। इस अर्थ में तत्त्वज्ञान से पूर्ण इस अध्याय को संकल्प वाक्य में सांख्ययोग कहा गया है।यह सत्य है कि मूल महाभारत में गीता के अध्यायों के अन्त में यह संकल्प वाक्य नहीं मिलते। किसी एक व्यक्ति को इनकी रचना का श्रेय देने के विषय में व्याख्याकारों में मतभेद है। तथापि यह स्वीकार किया जाता है कि एक अथवा अनेक विद्वानों ने प्रत्येक अध्याय के विषय का अध्ययन कर उसका उचित नामकरण किया है। गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए वास्तव में ये नाम उपयोगी हैं। श्री शंकराचार्य जी ने इस विषय पर भाष्य नहीं लिखा है।