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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 70

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.70)

।।2.70।।जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है। ऐसे ही सम्पूर्ण भोगपदार्थ जिस संयमी मनुष्यमें विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है भोगोंकी कामनावाला नहीं।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

 2.70।। व्याख्या  आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्   वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है  परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है तब समुद्र बढ़ता नहीं अपनी मर्यादामें ही रहता है। परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका जल जब बहुत कम हो जाता है तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदीनदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फरक नहीं पड़ता वह बढ़ताघटता नहीं। उसको नदीनदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदासर्वदा ज्योंकात्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता। तद्वत्कामा (टिप्पणी प0 106)   यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति   ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्मतत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं उसके सामने आते हैं पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुखदुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते। अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है भोगपदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता 2। 46)।यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता है। कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है उसी जातिका जल नदनदियोंसे आता है और नदनदियोंसे जो जल आता है उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है। परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोगपदार्थोंमें इतना फरक है कि इसको समझानेके लिये रातदिन आकाशपातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है वह तत्त्व चेतन है नित्य है सत्य है असीम है अनन्त है और सांसारिक भोगपदार्थ जड हैं अनित्य हैं असत् हैं सीमित हैं अन्तवाले हैं।दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है वहाँ ये सांसारिक भोगपदार्थ पहुँचते ही नहीं प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं।अतः समुद्रका दृष्टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है। न कामकामी   जिनके मनमें भोगपदार्थोंकी कामना है जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती उनकी कामना जलन सन्ताप नहीं मिट सकते तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती। सम्बन्ध   अब आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है इस प्रश्नके उत्तरका उपसंहार करते हैं।