Download Bhagwad Gita 2.55 Download BG 2.55 as Image

⮪ BG 2.54 Bhagwad Gita Swami Chinmayananda BG 2.56⮫

Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 55

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 55

श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।2.55।। आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं से भिन्न सच्चे गुरु को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह प्रकरण साधकों के लिये विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसमें आत्मानुभूति के लिये आवश्यक जीवन मूल्यों एवं विभिन्न परिस्थितियों में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिये इसका विस्तार से वर्णन है।इस विषय के प्रारम्भिक श्लोक में ही ज्ञानी पुरुष की आन्तरिक मनस्थिति के वे समस्त लक्षण वर्णित हैं जिन्हे हमको जानना चाहिये। उपनिषद् रूपी उद्यान में खिले शब्द रूपी सुमनों की इस विशिष्ट सुगन्ध से सुपरिचित होने पर ही हमें इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दोंें का सम्यक् ज्ञान हो सकता है। जिसने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग दिया वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। श्रीकृष्ण ने अब तक जो कहा उसके सन्दर्भ में इस श्लोक का अध्ययन करने पर हम वास्तव में व्यास जी के प्रेरणाप्रद शब्दों के द्वारा औपनिषदीय सुरभि का अनुभव कर सकते हैं।आत्मस्वरूप अज्ञान से दूषित बुद्धि कामनाओं के पल्लवित होने के लिये योग्य क्षेत्र बन जाती है। परन्तु जिस पुरुष का अज्ञान आत्मानुभव के सम्यक् ज्ञान से निवृत्त हो जाता है उसका निष्काम हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ कार्य के निषेध से कारण का निषेध किया गया है। जहाँ कामनायें नहीं वहाँ अज्ञान नष्ट हो चुका है और ज्ञान तो वहाँ प्रकाशित हो ही रहा है।यदि सामान्य जनों से ज्ञानी को विशिष्टता प्रदान करने वाला यही एक मात्र लक्षण हो तो आज का कोई भी शिक्षित व्यक्ति हिन्दू महात्मा को पागल ही समझेगा क्योंकि आत्मानुभव के बाद उस ज्ञानी में इतनी भी सार्मथ्य नहीं रहेगी कि वह इच्छा कर सके इच्छा क्या है इच्छा मन की वह क्षमता है जो भविष्य में ऐसी वस्तु को पाने की योजना बनाये जिससे कि मनुष्य पहले से अधिक सुखी बन सके। ज्ञानी पुरुष इस सार्मथ्य को भी खो देगा यह है भौतिकवादियों द्वारा की जाने वाली आलोचना।उपर्युक्त प्रकार से इस श्लोक की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। केवल यह नहीं कहा कि वह सब कामनाओं को त्याग देता है वरन् निश्चित रूप से वह आत्मानन्द का अनुभव करता है।यह सर्वविदित तथ्य है कि बाल्यावस्था में जिन खिलौनों के साथ बालक रमता है उनको युवावस्था में वह छोड़ देता है। आगे वृद्ध होने पर उसकी इच्छायें परिवर्तित हो जाती हैं और युवावस्था में आकर्षक प्रतीत होने वाली वस्तुओं के प्रति उसके मन में कुछ राग नहीं रह जाता।अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है।