Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 44 भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 44 भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।   हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.44) ।।2.44।।उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।2.44।।उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य‌ मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य‌ नही होते। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी  2.44।। व्याख्या   तयापहृतचेतसाम्   पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है  उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा भारी सुख है दिव्य नन्दनवन है अप्सराएँ हैं अमृत है ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है। भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्   शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय शरीरका आराम मान और नामकी बड़ाई इनके द्वारा सुख लेनेका नाम भोग है। भोगोंके लिये पदार्थ रूपयेपैसे मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है उसका नाम ऐश्वर्य है। इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है प्रियता है खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है उनको  भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्  कहा गया है।जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं। कारण कि असु नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं उन प्राणपोषणपरायण लोगोंका नाम असुर है। वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना चाहते हैं  (टिप्पणी प0 80) ।  व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते   जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है उस परमात्माको ही प्राप्त करना है ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं जो भोग भोगे जा सकते हैं जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी तरफ चलना है ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं कलाओं आदिका जो संग्रह है उससे मैं विद्वान हूँ मैं जानकार हूँ ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता। विशेष बात परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है जिससे वह सुखदुःखसे ऊँचा उठ जाय अपना उद्धार कर ले सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले इसीमें मनुष्यशरीरकी सार्थकता है। परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है। कारण कि पशुपक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशुपक्षियोंमें और मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहापशुपक्षी तो भोगयोनि है अतः उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है। परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है भोग भोगनेके लिये नहीं। इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब साधनसामग्री है भोगसामग्री नहीं। जो उसको भोगसामग्री मान लेते हैं उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती।वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं देते प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते जितना भोगोंका महत्व अटकाता है। अटकानेमें अपनी रुचि नीयतकी प्रधानता है। भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है वहीं भोगोंकी रुचि भी है। जबतक भोग और संग्रहमें मानबड़ाईआराममें रुचि है तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं लग सकता क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया उसकी जो शक्ति थी वह भोग और संग्रहमें लग गयी। सम्बन्ध   किसी बातको पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्ट करना चाहते हैं अतः पीछेके तीन श्लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।2.44।। महर्षि व्यास ऐसे पहले साहसी क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अपने काल में अत्यन्त शोचनीय पतन की स्थिति से हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान किया। क्रान्ति का वह ग्रन्थ गीता है जिसकी रचना उन्होंने की। अपने काल की स्थितियों की उनके द्वारा की गयी तीव्र आलोचना भगवान् के इन शब्दों से स्पष्ट होती है जहां श्रीकृष्ण वेदों के कर्मकाण्ड को पुष्पिता वाणी कहते हैं। कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना करने में व्यास जी के साहस को समझने के लिये हमें उस काल के पुरोगामी पारम्परिक वातावरण की कल्पना करनी होगी हमें मानसिक रूप से उस काल में रहना होगा।वेदों का कर्मकाण्ड उन लोगों के लिए है जो विषयोपभोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं कर्मफल पाने की इच्छा और चिन्ता के कारण जिनकी सदसद् विवेक की क्षमता खो गयी है। सर्वोच्च साध्य को भूलकर साधनभूत कर्मों में ही वे लिप्त रहते हैं।वेदोक्त कर्मों को अत्यन्त परिश्रमपूर्वक करना पड़ता है तब मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग के रूप में उनका फल प्राप्त होता है जहाँ अलौकिक विषयों का उपभोग किया जा सकता है। इन सब प्रयत्नों में कामनाओं और चिन्ताओं आदि के कारण व्यक्तित्व के विकास के लिये अवसर नहीं मिलता इसलिये व्यास जी का विचार है कि अध्यात्म की दृष्टि से ये सकाम कर्म निरर्थक हैं। कर्मकाण्ड में आसक्त पुरुष जीवन के परम साध्य को भूलकर साधन में ही फंसा रह जाता है।अनन्तस्वरूप परम सत्य के प्रतिपादक के रूप में श्रीकृष्ण उन लोगों की हँसी उड़ाते हैं जो साधन को ही साध्य मानने की त्रुटि करते हैं। कर्मकाण्ड में ही उपदिष्ट केवल कर्तव्य कर्म के पालन से चित्त शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त होती है और इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करने की योग्यता पाकर उपनिषदों में निरूपित निदिध्यासन के द्वारा आत्मा का अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होता है जो जीवन का वास्तविक साध्य है। कर्म में ही रत पुरुषों को जीवन में कभी शान्ति नहीं मिलती।अविवेकी कामी पुरुषों को क्या फल मिलता है भगवान् कहते हैं