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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 41

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.41)

।।2.41।।हे कुरुनन्दन इस समबुद्धिकी प्राप्तिके विषयमें व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओंवाली ही होती हैं।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।2.41।। हे कुरुनन्दन इस (विषय) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है? अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

 2.41।। व्याख्या    व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन   कर्मयोगी साधकका ध्येय (लक्ष्य) जिस समताको प्राप्त करना रहता है वह समता परमात्माका स्वरूप है। उस परमात्मस्वरूप समताकी प्राप्तिके लिये अन्तःकरणकी समता साधन है अन्तःकरणकी समतामें संसारका राग बाधक है। उस रागको हटानेका अथवा परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका जो एक निश्चय है उसका नाम है व्यवसायात्मिका बुद्धि। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों होती है कारण कि इसमें सांसारिक वस्तु पदार्थ आदिकी कामनाका त्याग होता है। यह त्याग एक ही होता है चाहे धनकी कामनाका त्याग करें चाहे मानबड़ाईकी कामनाका त्याग करें। परन्तु ग्रहण करनेमें अनेक चीजें होती है क्योंकि एकएक चीज अनेक तरहकी होती है जैसे एक ही मिठाई अनेक तरहकी होती है। अतः इन चीजोँकी कामनाएं भी अनेक अनन्त होती हैं।गीतामें कर्मयोग (प्रस्तुत श्लोक) और भक्तियोग (9। 30) के प्रकरणमें तो व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन आया है पर ज्ञानयोगके प्रकरणमें व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन नहीं आया। इसका कारण यह है कि ज्ञानयोगमें पहले स्वरूपका बोध होता है फिर उसके परिणामस्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चयवाली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें पहले बुद्धिका एक निश्चय होता है फिर स्वरूपका बोध होता है। अतः ज्ञानयोगमें ज्ञानकी मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें एक निश्चयकी मुख्यता है। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्   अव्यवसायी वे होते हैं जिनके भीतर सकामभाव होता है जो भोग और संग्रहमें आसक्त होते हैं। कामनाके कारण ऐसे मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और वे बुद्धियाँ भी अनन्त शाखाओंवाली होती हैं अर्थात् एकएक बुद्धिकी भी अनन्त शाखाएँ होती हैं। जैसे पुत्रप्राप्ति करनी है यह एक बुद्धि हुई और पुत्रप्राप्तिके लिये किसी औषधका सेवन करें किसी मन्त्रका जप करें कोई अनुष्ठान करें किसी सन्तका आशीर्वाद लें आदि उपाय उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईँ। ऐसे ही धनप्राप्ति करनी है यह एक बुद्धि हुई और धनप्राप्तिके लिये व्यापार करें नौकरी करें चोरी करें डाका डालें धोखा दें ठगाई करें आदि उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईँ। ऐसे मनुष्योंकी बुद्धिमें परमात्मप्राप्तिका निश्चय नहीं होता। सम्बन्ध   अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त क्यों होती है इसका हेतु आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।2.41।। कर्मयोग के साधन से आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च उपलब्धि केवल इसलिये सम्भव है कि साधक दृढ़ निश्चय और एकाग्र चित्त से इसका अभ्यास करता है। जो लोग फल प्राप्ति की असंख्य इच्छाओं से प्रेरित हुये कर्म करते हैं उनका व्यक्तित्व विखरा हुआ रहता है और इस कारण एकाग्र चित्त होकर वे किसी भी क्षेत्र में सतत् कार्य नहीं कर सकते जिसका एक मात्र परिणाम उन्हें मिलता है विनाशकारी असफलता।इस श्लोक में संक्षेप में सफलता का रहस्य बताया गया है। निश्चयात्मक बुद्धि से कार्य करने पर किसी भी क्षेत्र में निश्चय ही सफलता मिलती है। परन्तु सामान्यत लोग असंख्य इच्छायें करते हैं जो अनेक बार परस्पर विरोधी होती हैं और स्वाभाविक ही उन्हें पूर्ण करने में मन की शक्ति को खोकर थक जाते हैं। इसे ही संकल्प विकल्प का खेल कहते हैं जो मनुष्य की सफलता के समस्त अवसरों को लूट ले जाता है।