Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 40 भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 40 नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।2.40।। इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।2.40।। क्रमनाश जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में फसल पाने के लिये भूमि जोतना सींचना बीज बोना निराई सुरक्षा और कटाई आदि क्रम का पालन करना पड़ता है अन्यथा हानि उठानी पड़ती है उसी प्रकार वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में भी क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह प्रत्यवाय दोष कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव)को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का विज्ञापन करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।अब इस ज्ञान का स्वरूप बताते हैं