Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 25 भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 25 अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त? अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।2.25।। आत्मा के स्वरूप को भगवान् यहाँ और अधिक स्पष्ट करते हैं। यहाँ प्रयुक्त शब्दों के द्वारा सत्य का निर्देश युक्तिपूर्वक किया गया है।अव्यक्त पंचमहाभूतों में जो सबसे अधिक स्थूल है जैसे पृथ्वी उसका ज्ञान पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है। परन्तु जैसेजैसे सूक्ष्मतर तत्त्व तक हम पहुँचते हैं वैसे यह ज्ञात होता है कि उसका ज्ञान पांचों प्रकार से नहीं होता। जल में गंध नहीं है और अग्नि में रस नहीं है तो वायु में रूप भी नहीं है। इस प्रकार आकाश सूक्ष्मतम होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। स्वभावत जो आकाश का भी कारण है उसका ज्ञान किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं हो सकता। अत हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अव्यक्त है।इन्द्रियगोचर वस्तु व्यक्त कही जाती है। अत जो इन्द्रियों से परे है वह अव्यक्त है। यद्यपि मैं किसी वृक्ष के बीज में वृक्ष को देखसुन नहीं सकता हूँ और न उसका स्वाद स्पर्श या गंध ज्ञात कर सकता हूँ तथापि मैं जानता हूँ कि यही बीज वृक्ष का कारण है। इस स्थिति में कहा जायेगा कि बीज में वृक्ष अव्यक्त अवस्था में है। इस प्रकार आत्मा को अव्यक्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य विषय नहीं है। उपनिषदों में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि आत्मा सबकी द्रष्टा होने से दृश्य विषय नहीं बन सकती।अचिन्त्य आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं है उसी प्रकार यहाँ वह अचिन्त्य है कहकर यह दर्शाते हैं कि मन और बुद्धि के द्वारा हम आत्मा का मनन और चिन्तन नहीं कर सकते जैसे अन्य विषयों का विचार सम्भव है। इसका कारण यह है कि मन और बुद्धि दोनों स्वयं जड़ हैं। परन्तु इस चैतन्य आत्मा के प्रकाश से चेतन होकर वे अन्य विषयों को ग्रहण करते हैं। अब अपने ही मूलस्वरूप द्रष्टा को वे किस प्रकार विषय रूप में जान सकेंगे दूरदर्शीय यन्त्र से देखने वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख सकता क्योंकि एक ही व्यक्ति स्वयं द्रष्टा और दृश्य दोनों नहीं हो सकता। यह अचिन्त्य शब्द का तात्पर्य है। अत अव्यक्त और अचिन्त्य शब्द से आत्मा को अभाव रूप नहीं समझ लेना चाहिए।अविकारी अवयवों से युक्त साकार पदार्थ परिच्छिन्न और विकारी होता है। निरवयव आत्मा में किसी प्रकार का विकार संभव नहीं है।इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं कि आत्मा को उसके शुद्ध रूप से पहचान कर शोक करना त्याग देना चाहिए। ज्ञानी पुरुष अपने को न मारने वाला समझता है और न ही मरने वाला मानता है।भौतिकवादी विचारकों के मत को स्वीकार करके यह मान भी लें कि आत्मा नित्य नहीं है तब भी भगवान् कहते हैं