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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 11

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 11

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.11)

।।2.11।।श्रीभगवान् बोले तुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और पण्डिताईकी बातें कह रहे हो परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

 2.11।। व्याख्या   मनुष्यको शोक तब होता है जब वह संसारके प्राणीपदार्थोंमें दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं ये हमारे वर्णके हैं और ये हमारे वर्णके नहीं हैं ये हमारे आश्रमके हैं और ये हमारे आश्रमके नहीं हैं ये हमारे पक्षके हैं और ये हमारे पक्षके नहीं हैं। जो हमारे होते हैं उनमें ममता कामना प्रियता आसक्ति हो जाती है। इन ममता कामना आदिसे ही शोक चिन्ता भय उद्वेग हलचल संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष अनर्थ नहीं है जो ममता कामना आदिसे पैदा न होता हो यह सिद्धान्त है।गीतामें सबसे पहले धृतराष्ट्रने कहा कि मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने युद्धभूमिमें क्या किया यद्यपि पाण्डव धृतराष्ट्रको अपने पितासे भी अधिक आदरदृष्टिसे देखते थे तथापि धृतराष्ट्रके मनमें अपने पुत्रोंके प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रोंमें और पाण्डवोंमें भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं।जो ममता धृतराष्ट्रमें थी वही ममता अर्जुनमें भी पैदा हुई। परन्तु अर्जुनकी वह ममता धृतराष्ट्रकी ममताके समान नहीं थी। अर्जुनमें धृतराष्ट्रकी तरह पक्षपात नहीं था अतः वे सभीको स्वजन कहते हैं  दृष्ट्वेमं स्वजनम्  (1। 28) और दुर्योधन आदिको भी स्वजन कहते हैं  स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव  (1। 37)। तात्पर्य है कि अर्जुनकी सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें ममता थी और उस ममताके कारण ही उनके मरनेकी आशंकासे अर्जुनको शोक हो रहा था। इस शोकको मिटानेके लिये भगवान्ने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया है जो इस ग्यारहवें श्लोकसे आरम्भ होता है। इसके अन्तमें भगवान् इसी शोकको अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर  मा शुचः  (18। 66)। कारण कि संसारका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है और अनन्यभावसे मेरा आश्रय लेनेसे तेरे शोक चिन्ता आदि सब मिट जायँगे। अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्   संसारमात्रमें दो चीजें हैं सत् और असत् शरीरी और शरीर। इन दोनोंमें शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशीका कभी विनाश नहीं होता इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशीका विनाश होता ही है वह एक क्षण भी स्थायीरूपसे नहीं रहता इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरीको लेकर बन सकता है और न शरीरोंको लेकर ही बन सकता है। शोकके होनेमें तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है।मनुष्यके सामने जन्मनामरना लाभहानि आदिके रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है वह प्रारब्धका अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका ही फल है। उस अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको लेकर शोक करना सुखीदुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये चाहे प्रतिकूल आये उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदिमें और अन्तमें नहीं होती वह बीचमें एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे और मिटती है तो स्थायी कैसे ऐसी प्रतिक्षण मिटनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको लेकर हर्षशोक करना सुखीदुःखी होना केवल मूर्खता है। प्रज्ञावादांश्च भाषसे   एक तरफ तो तू पण्डिताईकी बातें बघार रहा है और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तवमें तू पण्डित नहीं है क्योंकि जो पण्डित होते हैं वे किसीके लिये भी कभी शोक नहीं करते।कुलका नाश होनेसे कुलधर्म नष्ट हो जायगा। धर्मके नष्ट होनेसे स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और उनके कुलको नरकोंमें ले जानेवाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलनेसे उनके पितरोंका भी पतन हो जायगा ऐसी तेरी पण्डिताईकी बातोंसे भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीर स्वयं अविनाशी न होता तो कुलघाती और कुलके नरकोंमें जानेका भय नहीं होता पितरोंका पतन होनेकी चिन्ता नहीं होती। अगर तुझे कुलकी और पितरोंकी चिन्ता होती है उनका पतन होनेका भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और उसमें रहनेवाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरोंके नाशको लेकर तेरा शोक करना अनुचित है। गतासूनगतासूंश्च   सबके पिण्डप्राणका वियोग अवश्यम्भावी है। उनमेंसे किसीके पिण्डप्राणका वियोग हो गया है और किसीका होनेवाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। तुमने जो शोक किया है यह तुम्हारी गलती है।जो मर गये हैं उनके लिये शोक करना तो महान् गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियोंके लिये शोक करनेसे उन प्राणियोंको दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्माके लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है वह उसको परलोकमें मिल जाता है ऐसे ही मृतात्माके लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं वे मृतात्माको परवश होकर खानेपीने पड़ते हैं  (टिप्पणी प0 48) । जो अभी जी रहे हैं उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालनपोषण करना चाहिये प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी क्या दशा होगी उनका भरणपोषण कैसे होगा उनकी सहायता कौन करेगा आदि चिन्ताशोक कभी नहीं करने चाहिये क्योंकि चिन्ताशोक करनेसे कोई लाभ नहीं है।मेरे शरीरके अङ्ग शिथिल हो रहे हैं मुख सूख रहा है आदि विकारोंके पैदा होनेमें मूल कारण है शरीरके साथ एकता मानना। कारण कि शरीरके साथ एकता माननेसे ही शरीरका पालनपोषण करनेवालोंके साथ अपनापन हो जाता है और उस अपनेपनके कारण ही कुटुम्बियोंके मरने की आशंकासे अर्जुनके मनमें चिन्ताशोक हो रहे हैं तथा चिन्ताशोकसे ही अर्जुनके शरीरमें उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं इसमें भगवान्ने  गतासून  और  अगतासून्  के शोकको ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं वे  गतासून्  हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं वे  अगतासून्  हैं। पिण्ड और जल न मिलनेसे पितरोंका पतन हो जाता है (1। 42) यह अर्जुनकी  गतासून  की चिन्ता है। और जिनके लिये हम राज्य भोग और सुख चाहते हैं वे ही प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं (1। 33) यह अर्जुनकी  अगतासून्  की चिन्ता है। अतः ये दोनों चिन्ताएँ शरीरको लेकर ही हो रही है अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूपसे एक ही हैं। कारण कि  गतासून  और  अगतासून  दोनों ही नाशवान् हैं। गतासून्  और  अगतासून   इन दोनोंके लिये कर्तव्यकर्म करना चिन्ताकी बात नहीं है।  गतासून  के लिये पिण्डपानी देना श्राद्धतर्पण करना यह कर्तव्य है और  अगतासून  के लिये व्यवस्था कर देना निर्वाहका प्रबन्ध कर देना यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिन्ताका विषय नहीं होता प्रत्युत विचारका विषय होता है। विचारसे कर्तव्यका बोध होता है और चिन्तासे विचारनष्ट होता है। नानुशोचन्ति पण्डिताः   सत्असत्विवेकवती बुद्धिका नाम पण्डा है। वह पण्डा जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत्असत्का स्पष्टतया विवेक हो गया है वे पण्डित हैं। ऐसे पण्डितोंमें सत्असत्को लेकर शोक नहीं होता क्योंकि सत्को सत् माननेसे भी शोक नहीं होता और असत्को असत् माननेसे भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्स्वरूप है और बदलनेवाला शरीर असत्स्वरूप है। असत्को सत् मान लेनेसे ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें मरें नहीं इस बातको लेकर ही शोक होता है। सत्को लेकर कभी चिन्ताशोक होते ही नहीं। सम्बन्ध   सत्तत्त्वको लेकर शोक करना अनुचित क्यों है इस शंकाके समाधानके लिये आगेके दो श्लोक कहते हैं।