Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 10 भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 10 तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.10) ।।2.10।।हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुएसे भगवान् हृषीकेश ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।2.10।। हे भारत (धृतराष्ट्र) दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने हँसते हुए से यह वचन कहे।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी  2.10।। व्याख्या    तमुवाच हृषीकेषशः ৷৷. विषीदन्तमिदं वचः   अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था। अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्यसे आये थे उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते। परन्तु उस उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ताशोकमें फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं। प्रहसन्निव   (विशेषतासे हँसते हुएकी तरह) का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था वह अब विषादमें बदल गया इसको देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। दूसरी बात अर्जुनने पहले (2। 7 में) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ मेरेको क्या करना चाहिये इसकी शिक्षा दीजिये परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा यह देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होनेपर मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है वही काम करे। अर्जुन भगवान्के शरण होनेके बाद मैं युद्ध नहीं करूँगा ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये। इस बातको लेकर भगवान्को हँसी आ गयी। इव का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुस्कराते हुए ही बोले।जब अर्जुनने यह कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तब भगवान्को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये वैसा कर यथेच्छसि तथा कुरु (18। 63)। परन्तु भगवान्ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ताशोकसे विकल हो जाता है तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुनकी हो रही है। अतः भगवान्के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं। इसलिये भगवान् अर्जुनके मैं युद्ध नहीं करूँगा इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं।जो वचनमात्रसे भी भगवान्के शरण हो जाता है भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान्के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है हृषीकेश  कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं। भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा वैसा ही यह करेगा। इदं वचः उवाच   पदोंमें केवल  उवाच  कहनेसे ही काम चल सकता था क्योंकि  उवाच  के अन्तर्गत ही  वचः  पदका अर्थ आ जाता है। अतः  वचः  पद देना पुनरूक्तिदोष दीखता है। परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगेके श्लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ  वचः  दिया गया है। सम्बन्ध   शोकाविष्ट अर्जुनको शोकनिवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।2.10।। इस प्रकार धर्म और अधर्म शुभ और अशुभ इन दो सेनाओं के संव्यूहन के मध्य अर्जुन (जीव) पूर्ण रूप से अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण (सूक्ष्म विवेकवती बुद्धि) की शरण में आत्मसमर्पण करता है जो पाँच अश्वों (पंच ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा चालित रथ (देह) अपने पूर्ण नियन्त्रण में रखते हैं।ऐसे दुखी और भ्रमित व्यक्ति जीव अर्जुन को श्रीकृष्ण सहास्य उसकी अन्तिम विजय का आश्वासन देने के साथ ही गीता के आत्ममुक्ति का आध्यात्मिक उपदेश भी करते हैं जिसके ज्ञान से सदैव के लिये मनुष्य के शोक मोह की निवृत्ति हो जाती है।उपनिषद् के रूपक को ध्यान में रखकर यदि हम संजय द्वारा चित्रित दृश्य का वर्णन उपर्युक्त प्रकार से करें तो इसमें हमें सनातन पारमार्थिक सत्य के दर्शन होंगे। जब जीव (अर्जुन) विषादयुक्त होकर शरीर में (देह) स्थित हो जाता है और सभी स्वार्थ पूर्ण कर्मों के साधनों (गाण्डीव) को त्यागकर इन्द्रियों को (श्वेत अश्व) मन की लगाम के द्वारा संयमित करता है तब सारथि (शुद्ध बुद्धि) जीव को धर्म शक्ति की सहायता से वह दैवी सार्मथ्य और मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे अधर्म की बलवान सेना को भी परास्त कर जीव सम्पूर्ण विजय को प्राप्त करता है।