Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 63 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 63 इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.63) ।।18.63।।यह गुह्यसे भी गुह्यतर (शरणागतिरूप) ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। अब तू इसपर अच्छी तरहसे विचार करके जैसा चाहता है? वैसा कर। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।18.63।। व्याख्या --   इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया -- पूर्वश्लोकमें सर्वव्यापक अन्तर्यामी परमात्माकी जो शरणागति बतायी गयी है? उसीका लक्ष्य यहाँ इति पदसे कराया गया है। भगवान् कहते हैं कि यह गुह्यसे भी गुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान मैंने तेरे लिये कह दिया है। कर्मयोग गुह्य है और अन्तर्यामी निराकार परमात्माकी शरणागतिगुह्यतर है (टिप्पणी प0 965.1)।विमृश्यैतदशेषेण -- गुह्यसेगुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान बताकर भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि मैंने पहले जो भक्तिकी बातें कही हैं? उनपर तुम अच्छी तरहसे विचार कर लेना। भगवान्ने इसी अध्यायके सत्तावनवेंअट्ठावनवें श्लोकोंमें अपनी भक्ति(शरणागति) की जो बातें कही हैं? उन्हें एतत् पदसे लेना चाहिये। गीतामें जहाँजहाँ भक्तिकी बातें आयी हैं? उन्हें अशेषेण पदसे लेना चाहिये (टिप्पणी प0 965.2)।विमृश्यैतदशेषेण कहनेमें भगवान्की अत्यधिक कृपालुताकी एक गुढ़ाभिसन्धि है कि कहीं अर्जुन मेरेसे विमुख न हो जाय? इसलिये यदि यह मेरी कही हुई बातोंकी तरफ विशेषतासे खयाल करेगा तो असली बात अवश्य ही इसकी समझमें आ जायगी और फिर यह मेरेसे विमुख नहीं होगा।यथेच्छसि तथा कुरु -- पहले कही सब बातोंपर पूरापूरा विचार करके फिर तेरी जैसी मरजी आये? वैसा कर। तू जैसा करना चाहता है? वैसा कर -- ऐसा कहनेमें भी भगवान्की आत्मीयता? कृपालुता और हितैषिता ही प्रत्यक्ष दीख रही है।पहले वक्ष्याम्यशेषतः (7। 2)? इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे (9। 1) वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1) आदि श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके हितकी बात कहते आये हैं? पर इन वाक्योंमें भगवान्की अर्जुनपर सामान्य कृपा है।न श्रोष्यति विनङ्क्ष्यसि (18। 58) -- इस श्लोकमें अर्जुनको धमकानेमें भगवान्की विशेष कृपा और अपनेपनका भाव टपकता है।यहाँ यथेच्छसि तथा कुरु कहकर भगवान् जो अपनेपनका त्याग कर रहे हैं? इसमें तो भगवान्कीअध्यधिक कृपा और आत्मीयता भरी हुई है। कारण कि भक्त भगवान्का धमकाया जाना तो सह सकता है? पर भगवान्का त्याग नहीं सह सकता। इसलिये न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि आदि कहनेपर भी अर्जुनपर इतना असर नहीं पड़ा जितना यथेच्छसि तथा कुरु कहनेपर पड़ा। इसे सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान् तो मेरा त्याग कर रहे हैं क्योंकि मैंने यह बड़ी भारी गलती की कि भगवान्के द्वारा प्यारसे समझाने? अपनेपनसे धमकाने और अन्तर्यामीकी शरणागतिकी बात कहनेपर भी मैं कुछ बोला नहीं? जिससे भगवान्कोजैसी मरजी आये? वैसा कर -- यह कहना पड़ा। अब तो मैं कुछ भी कहनेके लायक नहीं हूँ ऐसा सोचकर अर्जुन बड़े दुःखी हो जाते हैं? तब भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही सर्वगुह्यतम वचनोंको कहते हैं? जिसका वर्णन आगेके श्लोकमें है। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान् विमृश्यैतदेषेण पदसे अर्जुनको कहा कि मेरे इस पूरे उपदेशका सार निकाल लेना। परन्तु भगवान्के सम्पूर्ण उपदेशका सार निकाल लेना अर्जुनके वशकी बात नहीं थी क्योंकि अपने उपदेशका सार निकालना जितना वक्ता जानता है? उतना श्रोता नहीं जानता दूसरी बात? जैसी मरजी आये? वैसा कर -- इस प्रकार भगवान्के मुखसे अपने त्यागकी बात सुनकर अर्जुन बहुत डर गये? इसलिये आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् अपने प्रिय सखा अर्जुनको आश्वासन देते हैं।