Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 59 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 59 यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।18.59।। और अहंकारवश तुम जो यह सोच रहे हो? मैं युद्ध नहीं करूंगा? यह तुम्हारा निश्चय मिथ्या है? (क्योंकि) प्रकृति (तुम्हारा स्वभाव) ही तुम्हें (बलात् कर्म में) प्रवृत्त करेगी।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।18.59।। सत्य के सामान्य कथन की ओर मनुष्य विशेष ध्यान नहीं देता। इस कारण सत्य के उस ज्ञान को वह आत्मसात् नहीं कर पाता। परन्तु यदि उसी सामान्य कथन को मनुष्य को अपने जीवन से सम्बन्धित अनुभवों में प्रयुक्त कर दर्शाया जाये? तो वह उस ज्ञान को अर्जित कर आत्मसात् कर लेता है। वह ज्ञान उसका अपना नित्य अनुभव बन जाता है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण पूर्वोक्त दार्शनिक सिद्धांत को अर्जुन की तात्कालिक समस्या के सन्दर्भ में उसे समझाना चाहते हैं।यदि अपने अभिमान के कारण अर्जुन यह सोचता है कि वह युद्ध नहीं करेगा? तो उसका यह निश्चय व्यर्थ है उसका क्षत्रिय स्वभाव व्यक्त होने के लिए सदैव अवसर की प्रतीक्षा करता रहेगा? और उपयुक्त अवसर पाकर वह अर्जुन को कर्म करने को बाध्य किये बिना नहीं रहेगा। प्रकृति तुम्हें प्रवृत्त करेगी। जिसने लवण भक्षण किया है? उसे शीघ्र ही प्यास लगेगी। युद्ध से निवृत्त होने में अर्जुन जो मिथ्या तर्क प्रस्तुत करता है? वह वस्तुत प्राप्त परिस्थितियों के साथ उसके द्वारा किये गये समझौते को ही दर्शाता है।यदि अर्जुन तत्कालीन अस्थायी वैराग्य अथवा पलायन की भावना के कारण युद्ध से विरत हो जाता है? तो भी प्राकृतिक नियमामुसार? कालान्तर में उसका स्वभाव ही उसे कर्म करने के लिए बाध्य करेगा और उस समय संभव है कि उसे अपने स्वभाव को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र न मिले? जिससे वह अपनी वासनाओं का क्षय कर सके।