Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 58 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 58 मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.58) ।।18.58।।मेरेमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा और यदि तू अहंकारके कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।18.58।। मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।18.58।। व्याख्या --   मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि -- भगवान् कहते हैं कि मेरेमें चित्तवाला होनेसे तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्न? बाधा? शोक? दुःख आदिको तर जायगा अर्थात् उनको दूर करनेके लिये तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा।भगवद्भक्तने अपनी तरफसे सब कर्म भगवान्के अर्पण कर दिये? स्वयं भगवान्के अर्पित हो गया? समताके आश्रयसे संसारकी संयोगजन्य लोलुपतासे सर्वथा विमुख हो गया और भगवान्के साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया। यह सब कुछ हो जानेपर भी वास्तविक तत्त्वकी प्राप्तिमें यदि कुछ कमी रह जाय या सांसारिक लोगोंकी अपेक्षा अपनेमें कुछ विशेषता देखकर अभिमान आ जाय अथवा इस प्रकारके कोई सूक्ष्म दोष रह जायँ? तो उन दोषोंको दूर करनेकी साधकपर कोई जिम्मेवारी नहीं रहती? प्रत्युत उन दोषोंको? विघ्नबाधाओंको दूर करनेकी पूरी जिम्मेवारी भगवान्की हो जाती है। इसलिये भगवान् कहते हैं -- मत्प्रसादात्तरिष्यसि अर्थात् मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नबाधाओँको तर जायगा। इसका तात्पर्य यह निकला कि भक्त अपनी तरफसे? उसको जितना समझमें आ जाय? उतना पूरी सावधानीके साथ कर ले? उसके बाद जो कुछ कमी रह जायगी? वह भगवान्की कृपासे पूरी हो जायगी।मनुष्यका अगर कुछ अपराध हुआ है तो वह यही हुआ है कि उसने संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान्से विमुख हो गया। अब उस अपराधको दूर करनेके लिये वह अपनी ओरसे संसारका सम्बन्ध तोड़कर भगवान्के सम्मुख हो जाय। सम्मुख हो जानेपर जो कुछ कमी रह जायगी? वह भगवान्की कृपासे पूरी हो जायगी। अब आगेका सब काम भगवान् कर लेंगे। तात्पर्य यह हुआ कि भगवत्कृपा प्राप्त करनेमें संसारके साथ किञ्चित् भी सम्बन्ध मानना और भगवान्से विमुख हो जाना -- यही बाधा थी। वह बाधा उसने मिटा दी तो अब पूर्णताकी प्राप्ति भगवत्कृपा अपनेआप करा देगी।जिसका प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरादिके साथ सम्बन्ध है? उसपर ही शास्त्रोंका विधिनिषेध? अपने वर्णआश्रमके अनुसार कर्तव्यका पालन आदि नियम लागू होते हैं और उसको उनउन नियमोंका पालन,जरूर करना चाहिये। कारण कि प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरादिके सम्बन्धको लेकर ही पापपुण्य होते हैं और उनका फल सुखदुःख भी भोगना पड़ता है। इसलिये उसपर शास्त्रीय मर्यादा और नियम विशेषतासे लागू होते हैं। परन्तु जो प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा ही विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है? वह शास्त्रीय विधिनिषेध और वर्णआश्रमोंकी मर्यादाका दास नहीं रहता। वह विधिनिषेधसे भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसपर विधिनिषेध लागू नहीं होते क्योंकि विधिनिषेधकी मुख्यता प्रकृतिके राज्यमें ही रहती है। प्रभुके राज्यमें तो शरणागतिकी ही मुख्यता रहती है।जीव साक्षात् परमात्माका अंश है (गीता 15। 7)। यदि वह केवल अपने अंशी परमात्माकी ही तरफ चलता है तो उसपर देव? ऋषि? प्राणी? मातापिता आदि आप्तजन और दादापरदादा आदि पितरोंका भी कोई ऋण नहीं रहता (टिप्पणी प0 957) क्योंकि शुद्ध चेतन अंशने इनसे कभी कुछ लिया ही नहीं। लेना तभी बनता है? जब वह जड शरीरके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और सम्बन्ध जोड़नेसे ही कमी आती है नहीं तो उसमें कभी कमी आती ही नहीं -- नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। जब उसमें कभी कमी आती ही नहीं? तो फिर वह उनका ऋणी कैसे बन सकता है यही सम्पूर्ण विघ्नोंको तरना हैसाधनकालमें जीवननिर्वाहकी समस्या? शरीरमें रोग आदि अनेक विघ्नबाधाएँ आती हैं परन्तु उनके आनेपर भी भगवान्की कृपाका सहारा रहनेसे साधक विचलित नहीं होता। उसे तो उन विघ्नबाधाओंमें भगवान्की विशेष कृपा ही दीखती है। इसलिये उसे विघ्नबाधाएँ बाधारूपसे दीखती ही नहीं? प्रत्युत कृपारूपसे ही दीखती हैं।पारमार्थिक साधनमें विघ्नबाधाओंके आनेकी तथा भगवत्प्राप्तिमें आड़ लगनेकी सम्भावना रहती है। इसके लिये भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेनेवालेके दोनों काम मैं कर दूँगा अर्थात् अपनी कृपासे साधनकी सम्पूर्ण विघ्नबाधाओंको भी दूर कर दूँगा और उस साधनके द्वारा अपनी प्राप्ति भी करा दूँगा।अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि -- भगवान् अत्यधिक कृपालुताके कारण आत्मीयतापूर्वक अर्जुनसे कह रहे हैं कि अथ -- पक्षान्तरमें मैंने जो कुछ कहा है? उसे न मानकर अगर अहंकारके कारण अर्थात् मैं भी कुछ जानता हूँ? करता हूँ तथा मैं कुछ समझ सकता हूँ? कुछ कर सकता हूँ आदि भावोंके कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा? मेरे इशारेके अनुसार नहीं चलेगा? मेरा कहना नहीं मानेगा? तो तेरा पतन हो जायगा -- विनङ्क्ष्यसि।यद्यपि अर्जुनके लिये यह किञ्चिन्मात्र भी सम्भव नहीं है कि वह भगवान्की बात न सुने अथवा न माने? तथापि भगवान् कहते हैं कि चेत् -- अगर तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि अगर तू अज्ञता अर्थात् अनजानपनेसे मेरी बात न सुने अथवा किसी भूलके कारण न सुने? तो यह सब क्षम्य है परन्तु यदि तू अहंकारसे मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा क्योंकि अहंकारसे मेरी बात न सुननेसे तेरा अभिमान बढ़ जायगा? जो सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्तिका मूल है।पहले चौथे अध्यायमें भगवान् स्वयं अपने श्रीमुखसे कहकर आये हैं कि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है -- भक्तोऽसि मे सखा चेति (4। 3) और फिर नवें अध्यायमें उन्होंने कहा है कि हे अर्जुन तू प्रतिज्ञा कर कि मेरे भक्तका पतन नहीं होता -- कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति (9। 31)। इससे सिद्ध हुआ कि अर्जुन भगवान्के भक्त हैं अतः वे कभी भगवान्से विमुख नहीं हो सकते और उनका पतन भी कभी नहीं हो सकता। परन्तु वे अर्जुन भी यदि भगवान्की बात नहीं सुनेंगे तो भगवान्से विमुख हो जायँगे और भगवान्से विमुख होनेके कारण उनका भी पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि भगवान्से विमुख होनेके कारण ही प्राणिका पतन होता है अर्थात् वह जन्ममरणके चक्करमें पड़ता है (गीता 9। 3 16। 20)।विशेष बातइसी अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें भगवान्ने प्रथम पुरुष अवाप्नोति का प्रयोग करके सामान्य रीतिसे सबके लिये कहा कि मेरी कृपासे परमपदकी प्राप्ति हो जाती है? और यहाँ मध्यम पुरुष तरिष्यसि का प्रयोग करके अर्जुनके लिये कहते हैं कि मेरी कृपासे तू विघ्नबाधाओंको तर जायगा। इन दोनों बातोंका तात्पर्य यह है कि भगवान्की कृपामें जो शक्ति है? वह शक्ति किसी साधनमें नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि साधन न करें? प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करना मनुष्यका स्वाभाविक धर्म होना चाहिये क्योंकि मनुष्यजन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। मनुष्यजन्मको प्राप्त करके भी जो परमात्माको प्राप्त नहीं करता? वह यदि ऊँचेसेऊँचे लोकोंमें भी चला जाय? तो भी उसे लौटकर संसार(जन्ममरण)में आना ही पड़ेगा (टिप्पणी प0 958) (गीता 8। 16)। इसलिये जब यह मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है? तो फिर मनुष्यको जीतेजी ही भगवत्प्राप्ति कर लेनी चाहिये और जन्ममरणसे रहित हो जाना चाहिये। कर्मयोगीके लिये भी भगवान्ने कहा है कि समतायुक्त पुरुष इस जीवितअवस्थामें ही पुण्य और पाप -- दोनोंसे रहित हो जाता है (गीता 2। 50)। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मबन्धनसे सर्वथा रहित होना अर्थात् जन्ममरणसे रहित होना मनुष्यमात्रका परम ध्येय है।दसवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अपनी कृपासे भक्तोंके अन्तःकरणमें ज्ञान प्रकाशित कर देता हूँ? और ग्यारहवें अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैंने अपनी कृपासे ही विराट्रूप दिखाया है। उसी कृपाको लेकर भगवान् यहाँ कहते हैं कि मेरी कृपासे परमपदकी प्राप्ति हो जायगी (18। 56) और मेरी कृपासे ही सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा (18। 58)। परमपदको प्राप्त होनेपर किसी प्रकारकी विघ्नबाधा सामने आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। फिर भी सम्पूर्ण विघ्नबाधाओंको तरनेकी बात कहनेका तात्पर्य यह है कि अर्जुनके मनमें यह भय बैठा था कि युद्ध करनेसे मुझे पाप लगेगा युद्धके कारण कुलपरम्पराके नष्ट होनेसे पितरोंका पतन हो जायगा और इस प्रकार अनर्थपरम्परा बढ़ती ही जायगी हमलोग राज्यके लोभमें आकर इस महान् पापको करनेके लिये तैयार हो गये हैं? इसलिये मैं शस्त्र छोड़कर बैठ जाऊँ और धृतराष्ट्रके पक्षके लोग मेरेको मार भी दें? तो भी मेरा कल्याण ही होगा (गीता 1। 36 -- 46)। इन सभी बातोंको लेकर और अनेक जन्मोंके दोषोंको भी लेकर भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि मेरी कृपासे तू सब विघ्नोंको? पापोंको तर जायगा -- सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। भगवान्ने बहुवचनमें दुर्गाणि पद देकर भी उसके साथ सर्व शब्द और जोड़ दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि मेरी कृपासे तेरा किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं रहेगा कोई भी बन्धन नहीं रहेगा और मेरी कृपासे सर्वथा शुद्ध होकर तू परमपदको प्राप्त हो जायगा। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।18.58।। सारांशत? साधक को सतत ईश्वर का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहने चाहिए। सतत अभ्यास करने पर शरीर और मन भी ऐसी अनुप्राणित बुद्धि का साथ देने लगते हैं? जो ईश्वर के अखण्ड स्मरण में रमती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों को पार कर जाओगे। हमारे जीवन में आने वाले अधिकांश विघ्न या प्रतिबन्ध केवल काल्पनिक होते हैं। मिथ्या भय और वृथा चिन्ता संभ्रमित मन के लक्षण हैं। मन के परमात्मस्वरूप में समाहित होने से प्राप्त होने वाले फल को ही कृपा कहते हैं। यहाँ कथित कृपा का अर्थ यह नहीं है कि करुणासागर भगवान् भक्त विशेष पर ही अपनी कृपा की वर्षा करते हैं? और अन्य जनों पर नहीं। भगवान् तो स्वयं कृपास्वरूप ही हैं। उनकी कृपा सर्वव्यापी है। आवश्यकता केवल हमारे अन्तकरण को शुद्ध करने की तथा विवेक को जाग्रत करने की है। शुद्धता और विवेक होने पर परमात्मा शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाता है? जो साधक के हृदय में पहले से ही विद्यमान था। सूर्य का प्रकाश किसी से पक्षपात नहीं करता। परन्तु जो व्यक्ति अपने घर के द्वार और वातायन सदैव बन्द रखता है? वह सूर्य प्रकाश से वंचित रह जाता है। इसमें सूर्य को दोष नहीं दिया जा सकता।इस श्लोक की द्वितीय पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि अहंकारवश उनके उपदेश का पालन न करने पर मनुष्य अपना नाश ही कर लेगा। प्राकृतिक नियम अपरिवर्तनीय होते हैं उनके न नेत्र होते हैं न श्रोत्र। वे अपना काम लयबद्ध करते रहते हैं। जो मनुष्य इन नियमें को पहचान कर उनका पूर्ण पालन करता है? वही सुखी रहता है।यदि अहंकारवश तुम नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे यह किसी क्रूर सत्ताधारी की मानव जाति को भयभीत करके उससे आज्ञा पालन करवाने के लिए दी गई धमकी नहीं है।अन्य धर्मों में दी गई नरक की धमकी के साथ इसकी तुलना नहीं करनी चाहिए। यह वस्तु स्थिति का कथन मात्र है। यदि न्यूटन भी अपने घर की छत से कूद पड़ता तो गुरुत्वाकर्षण की शक्ति निःक्ष्ड़ त्द्धड़श्चत रूप से उस पर भी अपना प्रभाव दिखाती ही प्रकृति के नियमों में एक निश्चितता है। बन्धन और मोक्ष? इन दो विकल्पों में से मनुष्य किसी का भी चयन करने में स्वतन्त्र है। मोक्षमार्ग का यहाँ वर्णन किया जा चुका है। प्रस्तुत कथन में भगवान् की केवल निर्मम स्पष्टवक्तृता तथा साधक के कल्याण की भावना ही स्पष्ट होती है। अपने इस स्पष्ट कथन से वे किसी बात को बनाना या बिगाड़ना नहीं चाहते।अन्तप्रेरणा की सौम्य एवं मधुर वाणी से हमें सदैव जीवन की सत्य पद्धति का मार्गदर्शन मिलता रहता है। परन्तु मनुष्य का अहंकार और स्वार्थ उस मधुर वाणी की उपेक्षा करके विषयोपभोग के निम्नस्तरीय जीवन का ही अनुकरण करता है। फलत वह अपने ही अनियन्त्रित मनोवेगों तथा अशुद्ध विचारों द्वारा दण्डित किया जाता है। अत यहाँ चेतावनी दी गई है कि तुम नष्ट हो जाओगे। यहाँ नाश का यह अर्थ है कि ऐसा अहंकारी पुरुष जीवन के परम पुरुषार्थ को नहीं प्राप्त कर सकता।अपने कथन को और अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं English Translation - Swami Gambirananda 18.58 Having your mind fixed on Me, you will cross over all difficulties through My grace. If, on the other hand, you do not listen out of egotism, you will get destroyed. English Translation - Swami Sivananda 18.58 Fixing thy mind on Me, thou shalt by My grace overcome all obstacles; but if from egoism thou wilt not hear Me, thou shalt perish. English Translation - Dr. S. Sankaranarayan 18.58. Having your thought-organ turned towards Me, you shall pass over all obstacles by Me Grace. On the other hand, if you dont give up your sense of ego, you will not liberated yourself, [instead] you will perish. English Commentary - Swami Sivananda 18.58 मच्चित्तः fixing thy mind on Me? सर्वदुर्गाणि all obstacles? मत्प्रसादात् by My grace? तरिष्यसि (thou) shalt overcome? अथ now? चेत् if? त्वम् thou? अहङ्कारात् from egoism? न not? श्रोष्यसि (thou) wilt hear? विनङ्क्ष्यसि (thou) shalt perish.Commentary When thy mind? O Arjuna? through onepointed devoion is fixed on Me? thou shalt by My grace cross over all difficulties and obstacles. But shouldst thou not take My teaching to heart and through pride disregard it? thou shalt be ruined.Difficulties Obstacles? snares? pitfalls? temptations on the spiritual path and various sorts of other difficulties of Samsara? diseases? etc.Egosim The idea that thou art a learned man. Thou shouldst not think I am independent. I know everything. I am a wise man. Why should I take the advice of another English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya's 18.58 Maccittah, having your mind fixed on Me; tarisyasi, you will cross over; sarva-durgani, alldifficulties, all cuases of transmigration which are difficult to overcome; mat-prasadat, through My grace. Atha cet, if, on the other hand; tvam, you; na srosyasi, will not listen to, will not accept, My words; ahankarat, out of egotism, thinking I am learned; then vinanksyasi, you will get destroyed, will court ruin. And this should not be thought of by you-I am independent. Why should I follow anothers bidding? English Translation of Commentary - Dr. S. Sankaranarayan 18.58 See Comment under 18.60 English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary 18.58 Thus, focusing your thought on Me, if you can perform all acts, you will, by My grace, cross over all difficulties of Samsara. If, however, out of self-conceit, i.e., out of the feeling, I know well what is to be done and what is not to be done - out of such a feeling, if you do not heed My words, you shall perish. Except Myself, there is none who knows what ought and what ought not to be done by all living beings; there is also none other than Myself who is in the position of a law-giver to them. Commentary - Chakravarthi Ji Then what will happen? This verse describes the result: you will cross all obstacles. Rudra Vaishnava Sampradaya - Commentary Now hear what will follow from such efforts. By fixing the mind on the Supreme Lord Krishna, by His grace any and all difficulties will be resolved whatever they may be; for such an aspirant all worldly troubles are overcome even if they seem to be insurmountable. Yet it should be clearly understood that if someone chooses to disregard or ignore the eternal teachings of the Vedic scriptures and out of egoism and self- conceit fall prey to the delusion that acting contrary to the Vedic scriptures is better. Then the disastrous result would be that they would commit sinful activities and fail the purpose of their existence. Subsequently at the time of death they would be hurled to the hellish worlds to suffer and rot in samsara the perpetual cycle of birth and death. Brahma Vaishnava Sampradaya - Commentary There is no commentary for this verse. Shri Vaishnava Sampradaya - Commentary Offering ones mind and heart in total surrendered unto the Supreme Lord along with all actions all worldly obstacles and impediments shall be overcome by His grace. But if one acts contrary to these unequivocal instructions choosing to abide with erroneous ideas of knowing what is better then the Vedic scriptures and instead disregard the instructions that the Supreme Lord is giving. Then one will be assured of certain failure for verily there is no one superior to Lord Krishna amongst all the infinite myriad of created beings nor is there any other creator other then He. Kumara Vaishnava Sampradaya - Commentary Offering ones mind and heart in total surrendered unto the Supreme Lord along with all actions all worldly obstacles and impediments shall be overcome by His grace. But if one acts contrary to these unequivocal instructions choosing to abide with erroneous ideas of knowing what is better then the Vedic scriptures and instead disregard the instructions that the Supreme Lord is giving. Then one will be assured of certain failure for verily there is no one superior to Lord Krishna amongst all the infinite myriad of created beings nor is there any other creator other then He. Transliteration Bhagavad Gita 18.58Macchittah sarvadurgaani matprasaadaat tarishyasi; Atha chet twam ahankaaraan na shroshyasi vinangkshyasi. Word Meanings Bhagavad Gita 18.58mat-chittaḥ—by always remembering me; sarva—all; durgāṇi—obstacles; mat-prasādāt—by my grace; tariṣhyasi—you shall overcome; atha—but; chet—if; tvam—you; ahankārāt—due to pride; na śhroṣhyasi—do not listen; vinaṅkṣhyasi—you will perish