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Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 53

भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 53

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।18.53।। अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।18.53।। पूर्व श्लोक में उपादेय (ग्रहण करने योग्य) गुणों का उल्लेख किया गया था। इस श्लोक में हेय? अर्थात् त्याज्य दुर्गुणों की सूची प्रस्तुत की गयी है। ध्यान की सफलता के लिए इन दुर्गुणों का परित्याग आवश्यक है।अहंकार देहेन्द्रियादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उनके कर्मों में कर्तृत्वाभिमान अहंकार कहलाता है।बल कामना और आसक्ति से अभिभूत पुरुष का बल यहाँ अभिप्रेत है? स्वधर्मानुष्ठान की सार्मथ्य नहीं।दर्प अर्थात् गर्व। यह गर्व ही मनुष्य को धर्म मार्ग से भ्रष्ट कर देता है। धर्म के अतिक्रमण का यह कारण है।काम और क्रोध विषय भोग की इच्छा काम है तथा प्रतिबन्धित काम ही क्रोध का रूप धारण करता है।परिग्रहम् विषयासक्त पुरुष की प्रवृत्ति अधिकाधिक धन और भोग्यवस्तुओं का संग्रह करने में होती है। उचित या अनुचित साधनों के द्वारा आवश्यकता से अधिक केवल भोग के लिए वस्तुएं एकत्र करना परिग्रह कहलाता है।वस्तुत? ये समस्त अवगुण परस्पर सर्वथा भिन्न नहीं हैं। एक अहंकार ही इन विभिन्न वृत्तियों में व्यक्त होता है। अहंकार के साथ ही ममत्व भाव भी जुड़ा रहता है। भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि साधक को अहंकार और ममत्व का परित्याग कर देना चाहिए। इनके परित्याग से साधक का मन शान्त और शुद्ध बन जाता है। यह शान्ति शवागर्त की अथवा मरुस्थल की उदास शान्ति नहीं? वरन् ज्ञान द्वारा अपने स्वरूप की पहचान होने से प्राप्त हुई शान्ति है।इस प्रकार? यहाँ वर्णित ध्यान के अनुकूल गुणों से सम्पन्न साधक उत्तम अधिकारी कहलाता है। ऐसा साधक ही ब्रह्मप्राप्ति के योग्य होता है। इस श्लोक में यह नहीं कहा गया है कि ऐसा साधक ब्रह्म ही बन जाता है? वरन् वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी बन जाता है। आत्म साक्षात्कार की यह पूर्व तैयारी है।इस प्रकार क्रम से