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Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 49

भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.49)

।।18.49।।जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है? जिसने शरीरको वशमें कर रखा है? जो स्पृहारहित है? वह मनुष्य सांख्ययोगके द्वारा नैष्कर्म्यसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।18.49।। सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला वह पुरुष जो स्पृहारहित तथा जितात्मा है? संन्यास के द्वारा परम नैर्ष्कम्य सिद्धि को प्राप्त होता है।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।18.49।। व्याख्या --   संन्यास(सांख्य) योगका अधिकारी होनेसे ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिये -- यह बतानेके लिये श्लोकके पूर्वार्द्धमें तीन बातें बतायी हैं --,(1) असक्तबुद्धिः सर्वत्र -- जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात् देश? काल? घटना? परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति? क्रिया? पदार्थ आदि किसीमें भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती।(2) जितात्मा -- जिसने शरीरपर अधिकार कर लिया है अर्थात् जो आलस्य? प्रमाद आदिसे शरीरके वशीभूत नहीं होता? प्रत्युत इसको अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्यको अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्यमें शरीर तत्परतासे लग जाता है और किसी क्रिया? घटना? आदिसे हटना,चाहता है तो वह वहाँसे हट जाता है। इस प्रकार जिसने शरीरपर विजय कर ली है? वह जितात्मा कहलाता है।(3) विगतस्पृहः -- जीवनधारणमात्रके लिये जिनकी विशेष जरूरत होती है? उन चीजोंकी सूक्ष्म इच्छाका नाम स्पृहा है जैसे -- सागपत्ती कुछ मिल जाय? रूखीसूखी रोटी ही मिल जाय? कुछनकुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं जल पीये बिना हम कैसे रह सकते हैं ठण्डीके दिनोंमें कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं सांख्ययोगका साधक इन जीवननिर्वाहसम्बन्धी आवश्यकताओंकी भी परवाह नहीं करता।तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोगमें चलनेवालेको जडताका त्याग करना पड़ता है। उस जडताका त्याग करनेमें उपर्युक्त तीन बातें आयी हैं। असक्तबुद्धि होनेसे वह जितात्मा हो जाता है? और जितात्मा होनेसे वह विगतस्पृह हो जाता है? तब वह सांख्ययोगका अधिकारी हो जाता है।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति -- ऐसा असक्तबुद्धि? जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोगके द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धिको अर्थात् नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है और जब स्वयंका उस क्रियाके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता? तब कोई भी क्रिया और उसका फल उसपर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक? स्वतःसिद्ध निष्कर्मता -- निर्लिप्तता है? वह प्रकट हो जाती है। सम्बन्ध --   अब उस परम सिद्धिको प्राप्त करनेकी विधि बतानेकी प्रतिज्ञा करते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।18.49।। हमको यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीतोपदेश उस अर्जुन के लिए दिया गया था? जो युद्ध भूमि पर कर्तव्य की विशालता को देखकर संभ्रमित हो गया था। वह युद्ध से पलायन कर? जंगलों में स्वकल्पित धारणा के अनुसार संन्यास का जीवन जीना चाहता था। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि सांसारिक जीवन तथा उसके कर्तव्यों से दूर भागना संन्यास नहीं है। इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण नैर्ष्कम्य सिद्धि की परिभाषा देते हैं? जिसका साधन संन्यास है। संन्यास का अर्थ है शरीर? मन और बुद्धि उपाधियों के साथ हुए अपने तादात्म्य का त्याग करना। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त करना ही नैर्ष्कम्य सिद्धि है।जब हम अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देते हैं? तब कर्तृत्व भोक्तृत्व अभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् हमारा समस्त व्यवहार जीव के रूप में ही होता है। लौकिक जगत् में भी? मद्यपान से उन्मत्त पुरुष में इस प्रकार की आत्मविस्मृति देखी जाती है। वह अपने व्यक्तित्व और पद को विस्मृत कर किसी अन्य रूप में ही व्यवहार करने लगता है। इस मादक उन्मत्तता में वह अपनी शिक्षादीक्षा? सभ्यता और संस्कृति को अपमानित करता हुआ निन्दनीय व्यवहार करता है। जब तक उस मादक पेय का प्रभाव बना रहता है? तब तक वह इसी प्रकार निन्द्य व्यवहार करता रहता है।आत्म अज्ञान के कारण अभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। आत्मज्ञान से इस अज्ञान का नाश हो जाने पर जीव को अपने परिपूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप का अनुभव होता है। उस पूर्ण के पूर्ण अनुभव में अपूर्णता का भान कहाँ और अपूर्णता न हो? तो कामना की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। कामना के अभाव में विचारों का संचलन ही अवरुद्ध हो जाता है? और इस प्रकार सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। यह स्थिति परम नैर्ष्कम्य सिद्धि कही जा सकती है।वेदान्त दर्शन में वर्णित नैर्ष्कम्य सिद्धि परमानन्द के अनुभव की वह स्थिति है? जिसमें अज्ञान? काम? विचार और कर्म का सर्वथा अभाव है। वेदान्तरूपी अध्यात्मिकमनोविज्ञान में हम कह सकते हैं कि अज्ञान कर्म का प्रपितामह है अत यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वस्वरूप में संस्थिति ही नैर्ष्कम्य सिद्धि है। इसे ही निर्विकल्प अथवा निष्कामत्व की स्थिति भी कहते हैं।इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि नैर्ष्कम्य की परम सिद्धि को प्राप्त होने का साधन ज्ञानलक्षण संन्यास है। जीवन संघर्षों से तुच्छ प्रकार के अशोभनीय पलायन के द्वारा इस पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वधर्म के पालन द्वारा हमको चित्तशुद्धि प्राप्त करनी चाहिए और तदुपरान्त ही संन्यास अर्थात् आत्मबोध के द्वारा स्वस्वरूप में दृढ़स्थिति प्राप्त की जा सकती है। क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का युद्ध से विरत होना उपयुक्त नहीं था। अत भगवान् श्रीकृष्ण उसे उसके स्वधर्म में प्रवृत्त करते हैं।सर्वत्र असक्त बुद्धि यह सुविदित तथ्य है कि विषयों में आसक्त पुरुष को कभी मनशान्ति नहीं प्राप्त होती। आसक्ति के कारण मन क्षुब्ध रहता है और दुर्बल शरीर मन की इच्छा के अनुसार काम करते हुए थक जाता है। मुण्डन किया हुआ मस्तक अर्थात् वह बुद्धि जो समस्त प्रकार की आसक्तियों से मुक्त है? वही उस परमात्मा को प्रकट कर सकती है? जो समस्त उपाधियों को चेतना प्रदान करता है। यह वास्तविक नैर्ष्कम्य सिद्धि है और एक साधन सम्पन्न उत्तम अधिकारी ही इसे प्राप्त कर सकता है।अर्जुन की संन्यास की इच्छा बन्धुमित्र परिवार के प्रति आसक्ति के कारण उत्पन्न हुई थी? अनासक्ति से नहीं। इसलिए? वह इच्छा मिथ्या ही थी।जितात्मा और विगतस्पृह जिस पुरुष के मन में विषयभोग की किंचिन्मात्र भी लालसा नहीं रह गयी है (विगतस्पृह)? केवल वही पुरुष जितात्मा अर्थात् पूर्ण आत्मसंयमी बन सकता है।मन और बुद्धि में ही क्रमश कर्तृत्व और भोकतृत्व के अभिमान निवास करते हैं। इन दोनों अभिमानों का संयुक्त रूप ही जीव कहलाता है। संसार में इस जीव का अस्तित्व बने रहने के कारण विषयों में उसकी स्पृहा है। सम्यक् विवेचन द्वारा यह जानकर कि विषयों में सुख नहीं होता? यह स्पृहा नष्ट की जा सकती है। उसी प्रकार? आत्मा और अनात्मा के विवेक के द्वारा आत्मबोध होने पर जीवभाव का भी अन्त हो जाता है। गीता इस बात को बारम्बार दोहराते हुए कभी नहीं थकती कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए आत्मसंयम एवं स्पृहा समाप्ति अपरिहार्य गुण हैं। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि नैर्ष्कम्य सिद्धि कोई अप्राप्त और नवीन स्थिति की प्राप्ति नहीं है? वरन् अज्ञान जनित आसक्तियों के त्याग से अपने स्वरूप की पहचान मात्र है। यह स्वत सिद्ध साध्य की सिद्धि है।भगवान् श्रीकृष्ण आगे कहते हैं।