Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 25 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 25 अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.25) ।।18.25।।जो कर्म परिणाम? हानि? हिंसा और सामर्थ्यको न देखकर मोहपूर्वक आरम्भ किया जाता है? वह तामस कहा जाता है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।18.25।। जो कर्म परिणाम? हानि? हिंसा और सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है? वह कर्म तामस कहलाता है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।18.25।। व्याख्या --   अनुबन्धम् -- जिसको फलकी कामना होती है? वह मनुष्य तो फलप्राप्तिके लिये विचारपूर्वक कर्म करता है? परन्तु तामस मनुष्यमें मूढ़ताकी प्रधानता होनेसे वह कर्म करनेमें विचार करता ही नहीं। इस कार्यको करनेसे मेरा तथा दूसरे प्राणियोंका अभी और परिणाममें कितना नुकसान होगा? कितना अहित होगा -- इस अनुबन्ध अर्थात् परिणामको न देखकर वह कार्य आरम्भ कर देता है।क्षयम् -- इस कार्यको करनेसे अपने और दूसरोंके शरीरोंकी कितनी हानि होगी धन और समयका कितना खर्चा होगा इससे दुनियामें मेरा कितना अपमान? निन्दा? तिरस्कार आदि होगा? मेरा लोकपरलोक बिगड़ जायगा आदि नुकसानको न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है।हिंसाम् -- इस कर्मसे कितने जीवोंकी हत्या होगी कितने श्रेष्ठ व्यक्तियोंके सिद्धान्तों और मान्यताओंकी हत्या हो जायगी दूसरे मनुष्योंकी मनुष्यताकी कितनी भारी हिंसा हो जायगी अभीके और भावी जीवोंके शुद्ध भाव? आचरण? वेशभूषा? खानपान आदिकी कितनी भारी हिंसा हो जायगी इससे मेरा और दुनियाका कितना अधःपतन होगा आदि हिंसाको न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है।अनवेक्ष्य च पौरुषम् -- इस कामको करनेकी मेरेमें कितनी योग्यता है? कितना बल? सामर्थ्य है मेरे पास कितना समय है? कितनी बुद्धि है? कितनी कला है? कितना ज्ञान है आदि अपने पौरुष(पुरुषार्थ) को न,देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है।मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते -- तामस मनुष्य कर्म करते समय उसके परिणाम? उससे होनेवाले नुकसान? हिंसा और अपनी सामर्थ्यका कुछ भी विचार न करके? जब जैसा मनमें भाव आया? उसी समय बिना विवेकविचारके वैसा ही कर बैठता है। इस प्रकार किया गया कर्म तामस कहलाता है। सम्बन्ध --   अब भगवान् सात्त्विक कर्ताके लक्षण बताते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।18.25।। तमोगुणी पुरुष कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व इस बात का विचार ही नहीं करता कि उस कर्म का परिणाम (अनुबन्ध) क्या होगा तथा उसके करने में कितनी शारीरिक? आर्थिक आदि शक्तियों का क्षय अर्थात् ह्रास होगा। उसे इस बात की भी कोई चिन्ता नहीं होती कि उसके कर्म के कारण कितनी हिंसा हो रही है अथवा लोगों को कष्ट हो रहा है। ऐसे प्रमादी और उत्तरदायित्वहीन लोगों के कर्म मोहवश अर्थात् किसी भ्रान्त धारणा और हीन उद्देश्य से प्रेरित होते हैं। उदाहरणार्थ? मद्यपान? दुसाहसपूर्ण द्यूत? भ्रष्टाचार आदि ये सब तामस कर्म हैं। ऐसे कर्मों के कर्ता केवल क्षणभर के वैषयिक सुख की संवेदना ही चाहते हैं।राजस कर्म के निराशा और दुखरूप फल को प्राप्त होने में कुछ काल की आवश्यकता होती है? परन्तु तामस कर्म का दुखरूप फल तत्काल ही प्राप्त होता है। जबकि सात्त्विक कर्म का फल सदैव आनन्द ही होता है।आगामी श्लोकों में? भगवान् श्रीकृष्ण तीन प्रकार के कर्ताओं का वर्णन करते हैं