Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 14 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 14 अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.14) ।।18.14।।इसमें (कर्मोंकी सिद्धिमें) अधिष्ठान तथा कर्ता और अनेक प्रकारके करण एवं विविध प्रकारकी अलगअलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ कारण दैव (संस्कार) है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।18.14।। अधिष्ठान (शरीर)? कर्ता? विविध करण (इन्द्रियादि)? विविध और पृथक्पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा हेतु दैव है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।18.14।। व्याख्या --   अधिष्ठानम् -- शरीर और जिस देशमें यह शरीर स्थित है? वह देश -- ये दोनों अधिष्ठान हैं।कर्ता -- सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति और प्रकृतिके कार्योंके द्वारा ही होती हैं। वे क्रियाएँ चाहे समष्टि हों? चाहे व्यष्टि हों परन्तु उन क्रियाओँका कर्ता स्वयं नहीं है। केवल अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अर्थात् जिसको चेतन और जडका ज्ञान नहीं है -- ऐसा अविवेककी पुरुष ही जब प्रकृतिसे होनेवाली क्रियाओंको अपनी मान लेता है? तब वह कर्ता बन जाता है (टिप्पणी प0 896)। ऐसा कर्ता ही कर्मोंकी सिद्धिमें हेतु बनता है।करणं च पृथग्विधम् -- कुल तेरह करण हैं। पाणि? पाद? वाक्? उपस्थ और पायु -- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और श्रोत्र? चक्षु? त्वक्? रसना और घ्राण -- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ -- ये दस बहिःकरण हैं तथा मन? बुद्धि और अहंकार -- ये तीन अन्तःकरण हैं।विविधाश्च पृथक्चेष्टाः -- उपर्युक्त तेरह करणोंकी अलगअलग चेष्टाएँ होती हैं जैसे -- पाणि (हाथ) -- आदानप्रदान करना? पाद (पैर) -- आनाजाना? चलनाफिरना? वाक् -- बोलना? उपस्थ -- मूत्रका त्याग करना? पायु (गुदा) -- मलका त्याग करना? श्रोत्र -- सुनना? चक्षु -- देखना? त्वक् -- स्पर्श करना? रसना -- चखना? घ्राण -- सूँघना? मन -- मनन करना? बुद्धि -- निश्चय करना और अहंकार -- मैं ऐसा हूँआदि अभिमान करना।दैवं चैवात्र पञ्चमम् -- कर्मोंकी सिद्धिमें पाँचवें हेतुका नाम दैव है। यहाँ दैव नाम संस्कारोंका है। मनुष्य जैसा कर्म करता है? वैसा ही संस्कार उसके अन्तःकरणपर पड़ता है। शुभकर्मका शुभ संस्कार पड़ता है और अशुभकर्मका अशुभ संस्कार पड़ता है। वे ही संस्कार आगे कर्म करनेकी स्फुरणा पैदा करते हैं। जिसमें जिस कर्मका संस्कार जितना अधिक होता है? उस कर्ममें वह उतनी ही सुगमतासे लग सकता है और जिस कर्मका विशेष संस्कार नहीं है? उसको करनेमें उसे कुछ परिश्रम पड़ सकता है। इसी प्रकार मनुष्य सुनता है? पुस्तकें पढ़ता है और विचार भी करता है तो वे भी अपनेअपने संस्कारोंके अनुसार ही करता है। तात्पर्य है कि मनुष्यके अन्तःकरणमें शुभ और अशुभ -- जैसे संस्कार होते हैं? उन्हींके अनुसार कर्म करनेकी स्फुरणा होती है।इस श्लोकमें कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु बताये गये हैं -- अधिष्ठान? कर्ता? करण? चेष्टा और दैव। इसका कारण यह है कि आधारके बिना कोई भी काम कहाँ किया जायगा इसलिये अधिष्ठान पद आया है। कर्ताके बिना क्रिया कौन करेगा इसलिये कर्ता पद आया है। क्रिया करनेके साधन (करण) होनेसे ही तो कर्ता क्रिया करेगा? इसलिये करण पद आया है। करनेके साधन होनेपर भी क्रिया नहीं की जायगी तो कर्मसिद्धि कैसे होगी इसलिये चेष्टा पद आया है। कर्ता अपनेअपने संस्कारोंके अनुसार ही क्रिया करेगा? संस्कारोंके विरुद्ध अथवा संस्कारोंके बिना क्रिया नहीं कर सकेगा? इसलिये दैव पद आया है। इस प्रकार इन पाँचोंके होनेसे ही कर्मसिद्धि होती है। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।18.14।। भगवान् श्रीकृष्ण अपने दिये हुए वचन को पूर्ण करते हुए इस श्लोक में कर्मसिद्धि के पाँच कारणों का नामोल्लेख करते हैं। यहाँ प्रस्तुत शब्दों के अर्थ बताने में गीता के व्याख्याकारों में थोड़ा अन्तर मिलता है। तथापि यह अन्तर विशेष महत्त्व का नहीं है।प्रत्येक कर्म स्थूल शरीर (अधिष्ठान) की सहायता से ही करना पड़ता है? क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का यही निवास स्थान है। यह शरीर स्वत कुछ भी कर्म नहीं कर सकता। इस शरीर को धारण करने वाला जीव (कर्ता) ही विषयों की इच्छाएं करता है और फिर उनकी पूर्ति के लिए कर्म करता है। विषय ग्रहण के लिए उसे ज्ञानेन्द्रियों की आवश्यकता होती है? जिन्हें यहाँ करण शब्द से इंगित किया गया है। इन करणों के बिना कर्ता जीव इस जगत् का न ज्ञान प्राप्त कर सकता है और न ही भोग।श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में पृथक् चेष्टा का अर्थ प्राणापानादि बताते हैं। वेदान्त सिद्धांत से परिचित विद्यार्थियों को इतना स्पष्टीकरण पर्याप्त है। परन्तु सामान्य लोगों को उसका अर्थ समझने में कठिनाई होती है। प्राणिक क्रियाओं के फलस्वरूप ही शरीर का स्वास्थ्य बना रहता है? जिससे कि मनुष्य कर्म करने में समर्थ होता है। अत? इस श्लोक को समझने की दृष्टि से हम चेष्टा शब्द का अर्थ कर्मेन्द्रिय ले सकते हैं। जैसा कि गीता में ही अनेक स्थानों पर कहा जा चुका है? हमारी इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता हैं जिनके अनुग्रह से श्रोत्र नेत्रादि इन्द्रियाँ स्वविषय ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इन देवताओं को यहाँ दैव शब्द से इंगित किया ग्ाया है।सारांश में? कर्म सम्पादन के पाँच कारण हैं (1) शरीर? (2) कर्ता जीव?(3) ज्ञानेन्द्रियाँ? (4) कर्मेन्द्रियाँ? तथा (5) दैव अर्थात् अधिष्ठातृ देवता।भगवान् आगे कहते हैं