Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 11 भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 11 न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.11) ।।18.11।।कारण कि देहधारी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है? वही त्यागी है -- ऐसा कहा जाता है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।18.11।। क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा अशेष कर्मों का त्याग संभव नहीं है? इसलिए जो कर्मफल त्यागी है? वही पुरुष त्यागी कहा जाता है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।18.11।। व्याख्या --   न हि देहभृता (टिप्पणी प0 879.1) शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः -- देहधारी अर्थात् देहके साथ तादात्म्य रखनेवाले मनुष्योंके द्वारा कर्मोंका सर्वथा त्याग होना सम्भव नहीं है क्योंकि शरीर प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति स्वतः क्रियाशील है। अतः शरीरके साथ तादात्म्य (एकता) रखनेवाला क्रियासे रहित कैसे हो सकता है हाँ? यह हो सकता है कि मनुष्य यज्ञ? दान? तप? तीर्थ आदि कर्मोंको छोड़ दे परन्तु वह खानापीना? चलनाफिरना? आनाजाना? उठनाबैठना? सोनाजागना आदि आवश्यक शारीरिक क्रियाओंको कैसे छोड़ सकता हैदूसरी बात? भीतरसे कर्मोंका सम्बन्ध छोड़ना ही वास्तवमें छोड़ना है। बाहरसे सम्बन्ध नहीं छोड़ा जा सकता। यदि बाहरसे सम्बन्ध छोड़ भी दिया जाय तो वह कबतक छूटा रहेगा जैसे कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहरकी क्रियाओंका सम्बन्ध छूट जाता है। परन्तु समाधि भी एक क्रिया है? एक कर्म है क्योंकि इसमें प्रकृतिजन्य कारणशरीरका सम्बन्ध रहता है। इसलिये समाधिसे भी व्युत्थान होता है।कोई भी देहधारी मनुष्य कर्मोंका स्वरूपसे सम्बन्धविच्छेद नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। कर्मोंका आरम्भ किये बिना? निष्कर्मता (योगनिष्ठा) प्राप्त नहीं होती और कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे सिद्धि (सांख्यनिष्ठा) भी प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4)।मार्मिक बातपुरुष (चेतन) सदा निर्विकार और एकरस रहनेवाला है परन्तु प्रकृति विकारी और सदा परिवर्तनशील है। जिसमें अच्छी रीतिसे क्रियाशीलता हो? उसको प्रकृति कहते हैं -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।उस प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ जबतक पुरुष अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मानता रहेगा? तबतक वह कर्मोंका सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीरमें अहंताममता होनेके कारण मनुष्य शरीरसे होनेवाली प्रत्येक क्रियाको अपनी क्रिया मानता है? इसलिये वह कभी किसी अवस्थामें भी क्रियारहित नहीं हो सकता।दूसरी बात? केवल पुरुषने ही प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है। प्रकृतिने पुरुषके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है? वहाँ पुरुषने विवेककी उपेक्षा करके प्रकृतिसे सम्बन्धकी सद्भावना कर ली अर्थात् सम्बन्धको सत्य मान लिया। सम्बन्धको सत्य माननेसे ही बन्धन हुआ है। वह सम्बन्ध दो तरहका होता है -- अपनेको शरीर मानना और शरीरको अपना मानना। अपनेको शरीर माननेसे अहंता और शरीरको अपना माननेसे ममता होती है। इस अहंताममतारूप सम्बन्धका घनिष्ठ होना ही देहधारीका स्वरूप है। ऐसा देहधारी मनुष्य कर्मोंको सर्वथा नहीं छोड़ सकता।यस्तु (टिप्पणी प0 879.2) कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते -- जो किसी भी कर्म और फलके साथ अपना सम्बन्ध नहीं रखता? वही त्यागी है। जबतक मनुष्य कुशलअकुशलके साथ? अच्छेमन्देके साथ अपना सम्बन्ध रखता है? तबतक वह त्यागी नहीं है।यह पुरुष जिस प्राकृत क्रिया और पदार्थको अपना मानता है? उसमें उसकी प्रियता हो जाती है। उसी,प्रियताका नाम है -- आसक्ति। यह आसक्ति ही वर्तमानके कर्मोंको लेकर कर्मासक्ति और भविष्यमें मिलनेवाले फलकी इच्छाको लेकर फलासक्ति कहलाती है। जब मनुष्य फलत्यागका उद्देश्य बना लेता है? तब उसके सब कर्म संसारके हितके लिये होने लगते हैं? अपने लिये नहीं। कारण कि उसको यह बात अच्छी तरहसे समझमें आ जाती है कि कर्म करनेकी सबकीसब सामग्री संसारसे मिली है और संसारकी ही है? अपनी नहीं। इन कर्मोंका भी आदि और अन्त होता है तथा उनका फल भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है परन्तु स्वयं सदा निर्विकार रहता है न उत्पन्न होता है? न नष्ट होता है और न कभी विकृत ही होता है। ऐसा विवेक होनेपर फलेच्छाका त्याग सुगमतासे हो जाता है। फलका त्याग करनेमें उस विवेककी मनुष्यमें कभी अभिमान भी नहीं आता क्योंकि कर्म और उसका फल -- दोनों ही अपनेसे प्रतिक्षण वियुक्त हो रहे हैं अतः उनके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तवमें है ही कहाँ इसीलिये भगवान् कहते हैं कि जो कर्मफलका त्यागी है? वही त्यागी कहा जाता है।निर्विकारका विकारी कर्मफलके साथ सम्बन्ध कभी था नहीं? है नहीं? हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं है। केवल अविवेकके कारण सम्बन्ध माना हुआ था। उस अविवेकके मिटनेसे मनुष्यकी अभिधा अर्थात् उसका नाम त्यागी हो जाता है -- स त्यागीत्यभिधीयते। माने हुए सम्बन्धके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक बात कही जाती है। एक व्यक्ति घरपरिवारको छोड़कर सच्चे हृदयसे साधुसंन्यासी हो जाता है तो उसके बाद घरवालोंकी कितनी ही उन्नति अथवा अवनति हो जाय अथवा सबकेसब मर जायँ? उनका नामोनिशान भी न रहे? तो भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता। इसमें विचार करें कि उस व्यक्तिका परिवारके साथ जो सम्बन्ध था? वह दोनों तरफसे माना हुआ था अर्थात् वह परिवारको अपना मानता था और परिवार उसको अपना मानता था। परन्तु पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध केवल पुरुषकी तरफसे माना हुआ है? प्रकृतिकी तरफसे माना हुआ नहीं जब दोनों तरफसे माना हुआ (व्यक्ति और परिवारका) सम्बन्ध भी एक तरफसे छोड़नेपर छूट जाता है? तब केवल एक तरफसे माना हुआ (पुरुष और प्रकृतिका) सम्बन्ध छोड़नेपर छूट जाय? इसमें कहना ही क्या है सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें कहा गया कि कर्मफलका त्याग करनेवाला ही वास्तवमें त्यागी है। अगर मनुष्य कर्मफलका त्याग न करे तो क्या होता है -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।18.11।। कोई भी देहधारी जीवित प्राणी चाहे वह एक कोषीय जीव ही क्यों न हो समस्त कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। कर्म तो जीवन का प्रतीक या लक्षण है। कर्म ही जीवनरूपी पुष्प की सुगन्ध है जहाँ कर्म नहीं है? वहाँ जीवन समाप्त समझा जाता है। कुछ कर्म किये बिना रहना भी अपने आप में एक कर्म ही है। शारीरिक और मानसिक क्रियाएं मरण पर्यन्त होती ही रहती हैं।अत हम देहधारियों को कर्म करने चाहिए या नहीं? ऐसा विकल्प ही संभव नहीं होता। परन्तु हमको कौन से कर्म और किस प्रकार उन्हें करना चाहिए? इस विषय में अवश्य ही विकल्प संभव है। गीता के उपदेशानुसार हमको अपने कर्तव्य कर्म ईश्वरार्पण की भावना से करने चाहिए।अज्ञानी जन देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उसमें आसक्त होते हैं तथा उनके कर्मों का कर्ता भी स्वयं को ही मानते हैं। अत ऐसे लोग सात्त्विक त्याग नहीं कर पाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का ऐसे लोगों को यह उपदेश है कि उनको कमसेकम कर्मफलों की आसक्ति त्याग कर कर्मों का आचरण परिश्रम? उत्साह एवं कुशलता के साथ करना चाहिए। कर्मफलत्यागी पुरुष ही वास्तव में त्यागी है? न कि कर्मों को त्यागने वाला व्यक्ति।इस त्याग का क्या प्रयोजन है सुनो