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Bhagavad Gita Chapter 17 Verse 14

भगवद् गीता अध्याय 17 श्लोक 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 17.14)

।।17.14।।देवता? ब्राह्मण? गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुषका पूजन करना? शुद्धि रखना? सरलता?,ब्रह्मचर्यका पालन करना और हिंसा न करना -- यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।17.14।। व्याख्या --   देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम् -- यहाँ देव शब्द मुख्यरूपसे विष्णु? शङ्कर? गणेश? शक्ति और सूर्य -- इन पाँच ईश्वरकोटिके देवताओंके लिये आया है। इन पाँचोंमें जो अपना इष्ट है? जिसपर अधिक श्रद्धा है? उसका निष्कामभावसे पूजन करना चाहिये (टिप्पणी प0 849.2)।बारह आदित्य? आठ वसु? ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार -- ये तैंतीस शास्त्रोक्त देवता भी देव शब्दके अन्तर्गत आते हैं। यज्ञ? तीर्थ? व्रत आदिमें? दीपमालिका आदि विशेष पर्वोंमें और जातकर्म? चूड़ाकर्म? यज्ञोपवीत? विवाह आदि संस्कारोंके समय जिन देवताओंके पूजनका शास्त्रोंमें विधान आता है? उन सब देवताओंको भी देव शब्दके अन्तर्गत मानना चाहिये। इन देवताओंका यथावसर पूजन करनेके लिये शास्त्रोंकी आज्ञा है। अतः हमें तो केवल शास्त्रमर्यादाको सुरक्षित रखनेके लिये अपना कर्तव्य समझकर निष्कामभावसे इनका पूजन करना है -- ऐसे भावसे इन देवताओंका भी यथावसर पूजन करना चाहिये। तात्पर्य है कि शास्त्रोंने जिनजिन तिथि? वार? नक्षत्र? आदिके दिन जिनजिन देवताओंका पूजन करनेका विधान बताया है? उनउन तिथि आदिके दिन उनउन देवताओंका पूजन करना चाहिये।द्विज शब्द ब्राह्मण? क्षत्रिय और वैश्य -- इन तीनोंका वाचक हैं परन्तु यहाँ पूजनका विषय होनेसे इसे केवल ब्राह्मणका ही वाचक समझना चाहिये? क्षत्रिय और वैश्यका नहीं।जिनसे हमें शिक्षा प्राप्त होती है? ऐसे हमारे मातापिता बड़ेबूढ़े? कुलके आचार्य? पढ़ानेवाले अध्यापक और आश्रम? अवस्था? विद्या आदिमें जो हमारेसे बड़े हैं? उन सभीको गुरु शब्दके अन्तर्गत समझना चाहिये।द्विज (ब्राह्मण) एवं अपने मातापिता? आचार्य आदि गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन करना? उनकी सेवा करना और उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना तथा पत्रपुष्प? आरती आदिसे उनकी पूजा करना -- यह सब उनका पूजन है।यहाँ प्राज्ञ शब्द जीवन्मुक्त महापुरुषके लिये आया है। यदि वह वर्ण और आश्रममें ऊँचा होता? तो द्विज पदमें आ जाता और यदि शरीरके सम्बन्धमें (जन्म और विद्यासे) बड़ा होता? तो गुरु पदमें आ जाता। इसलिये जो वर्ण और आश्रममें ऊँचा नहीं है एवं जिसके साथ गुरुका सम्बन्ध भी नहीं है -- ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषको यहाँ प्राज्ञ कहा गया है। ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुषके वचनोंका? सिद्धान्तोंका आदर करते हुए उनके अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तवमें उसका पूजन है। वास्तवमें देखा जाय तो द्विज और गुरु तो सांसारिक दृष्टिसे आदरणीय हैं? पूजनीय हैं परन्तु प्राज्ञ (जीवन्मुक्त) तो आध्यात्मिक दृष्टिसे आदरणीय -- पूजनीय है। अतः जीवन्मुक्तका हृदयसे आदर करना चाहिये क्योंकि केवल बाहरी (बाह्य दृष्टिसे) आदर ही आदर नहीं है? प्रत्युत हृदयका आदर ही वास्तविक आदर है? पूजन है।शौचम् -- जल? मृत्तिका आदिसे शरीरको पवित्र बनानेका नाम शौच है। शारीरिक शुद्धिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः। (योगदर्शन 2। 40)शौचसे अपने शरीरमें घृणा होगी कि हम इस शरीरको रातदिन इतना साफ करते हैं? फिर भी इससे मल? मूत्र? पसीना? नाकका कफ? आँख और कानकी मैल? लार? थूक आदि निकलते ही रहते हैं। यह शरीर हड्डी? मांस? मज्जा आदि घृणित (अपवित्र) चीजोंका बना हुआ है। इस हड्डीमाँसके थैलेमें तोलाभर भी कोई शुद्ध? पवित्र? निर्मल और सुगन्धयुक्त वस्तु नहीं है। यह केवल गंदगीका पात्र है। इसमें कोरी मलिनताहीमलिनता भरी पड़ी है। यह केवल मलमूत्र पैदा करनेकी एक फैक्टरी है? मशीन है। इस प्रकार शरीरकी अशुद्धि? मलिनताका ज्ञान होनेसे मनुष्य शरीरसे ऊँचा उठ जाता है। शरीरसे ऊँचा उठनेपर उसको वर्ण? आश्रम? अवस्था आदिको लेकर अपनेमें बड़प्पनका अभिमान नहीं होता। इन्हीं बातोंके लिये शौच रखा जाता है।आजकल प्रायः लोग कहते हैं कि जो शौचाचार रखते हैं? वे तो दूसरोंका अपमान करते हैं? दूसरोंसे घृणा करते हैं। उनका ऐसे कहना बिलकुल गलत है क्योंकि शौचका फल यह नहीं बताया गया कि तुम दूसरोंका तिरस्कार करो? प्रत्युत यह बताया गया कि इससे दूसरोंके साथ संसर्ग नहीं होगा -- परैरसंसर्गः। तात्पर्य है कि शरीरमात्रसे ग्लानि हो जायगी कि ये सब पुतले ऐसे ही अशुद्ध हैं। जैसे? मिट्टीके ढेलेको जलसे धोते चले जायँ? तो अन्तमें वह सब (गलकर) समाप्त हो जायगा? पर उसमें मिट्टीके सिवाय कोई बढ़िया चीज नहीं मिलेगी ऐसे ही शरीरको कितना ही शुद्ध करते रहें? पर वह कभी शुद्ध होगा नहीं क्योंकि इसके मूलमें ही अशुद्धि है -- स्थानाद् बीजादुपष्टम्भान्निःस्यन्दान्निधनादपि। कायमाधेयशौचत्वात् पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।।(योगदर्शन 2। 5 का व्यासभाष्य) विद्वान् लोग शरीरको स्थान (माताके उदरमें स्थित)? बीज (मातापिताके रजोवीर्यसे उद्भूत)? उपष्टम्भ (खायेपीये हुए आहारके रससे परिपुष्ट)? निःस्यन्द (मल? मूत्र? थूक? लार? स्वेद आदि स्रावसे युक्त)? निधन (मरणधर्मा) और आधेय शौच (जलमृत्तिका आदिसे प्रक्षालित करनेयोग्य) होनेके कारण अपवित्र मानते हैं। आर्जवम् -- शरीरकी ऐंठअकड़का त्याग करके उठने? बैठने आदि शारीरिक क्रियाओंको सीधीसरलतासे करनेका नाम आर्जव है। अभिमान अधिक होनेसे ही शरीरमें टेढ़ापन आता है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है? ऐसे साधकको अपनेमें अभिमान नहीं रखना चाहिये। निरभिमानता होनेसे शरीरमें और शरीरकी चलने? उठने? बैठने? बोलने? देखने आदि सभी क्रियाओंमें स्वाभाविक ही सरलता आ जाती है? जो आर्जव है।ब्रह्मचर्यम् -- ये आठ क्रियाएँ ब्रह्मचर्यको भंग करनेवाली हैं -- (1) पहले कभी स्त्रीसङ्ग किया है? उसको याद करना? (2) स्त्रियोंसे रागपूर्वक बातें करना? (3) स्त्रियोंके साथ हँसीदिल्लगी करना? (4) स्त्रियोंकी तरफ रागपूर्वक देखना? (5) स्त्रियोंके साथ एकान्तमें बातें करना? (6) मनमें स्त्रीसङ्गका संकल्प करना? (7) स्त्रीसङ्गका पक्का विचार करना और (8) साक्षात् स्त्रीसङ्ग करना। ये आठ प्रकारके मैथुन विद्वानोंने बतायें हैं (टिप्पणी प0 851.1)। इनमेंसे कोई भी क्रिया कभी न हो? उसका नाम ब्रह्मचर्य है।ब्रह्मचारी? वानप्रस्थ और संन्यासी -- इन तीनोंका तो बिलकुल ही वीर्यपात नहीं होना चाहिये और न ऐसा संकल्प ही होना चाहिये। गृहस्थ केवल सन्तानार्थ शास्त्रविधिके अनुसार ऋतुकालमें स्त्रीसङ्ग करता है? तो वह गृहस्थाश्रममें रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। विधवाओंके विषयमें भी ऐसी ही बात आती है कि जो स्त्री अपने पतिके रहते पातिव्रतधर्मका पालन करती रही है और पतिकी मृत्युके बाद ब्रह्मचर्य धर्मका,पालन करती है? उस विधवाकी वही गति होती है? जो आबाल ब्रह्मचारीकी होती है।वास्तवमें तो ब्रह्मचारिव्रते स्थितः (गीता 6। 14) -- ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित रहना ही ब्रह्मचर्य है। परन्तु इसमें भी यदि स्वप्नदोष हो जाय अथवा प्रमेह आदि शरीरकी खराबीसे वीर्यपात हो जाय? तो उसे ब्रह्मचर्यभङ्ग नहीं माना गया है। भीतरके भावोंमें गड़बड़ी आनेसे जो वीर्यपात आदि होते हैं? वही ब्रह्मचर्यभङ्ग माना गया है। कारण कि ब्रह्मचर्यका भावोंके साथ सम्बन्ध है। इसलिये ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालेको चाहिये कि अपने भाव शुद्ध रखनेके लिये वह अपने मनको परस्त्रीकी तरफ कभी जाने ही न दे। सावधानी रखनेपर कभी मन चला भी जाय? तो भीतरमें यह दृढ़ विचार रखे कि यह मेरा काम नहीं है? मैं ऐसा काम करूँगा ही नहीं क्योंकि मेरा ब्रह्मचर्यपालन करनेका पक्का विचार है मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँअहिंसा -- सभी प्रकारकी हिंसाका अभाव अहिंसा है। हिंसा स्वार्थ? क्रोध? लोभ और मोह(मूढ़ता) को लेकर होती है। जैसे? अपने स्वार्थमें आकर किसीका धन दबा लिया? दूसरोंका नुकासन करा दिया -- यह स्वार्थ को लेकर हिंसा है। क्रोधमें आकर किसीको थोड़ी चोट पहुँचायी? ज्यादा चोट पहुँचायी अथवा खत्म ही कर दिया -- यह क्रोध को लेकर हिंसा है। चमड़ा मिलेगा? मांस मिलेगा? इसके लिये किसी पशुको मार दिया अथवा धनके कारण किसीको मार दिया -- यह लोभ को लेकर हिंसा है। रास्तेपर चलतेचलते किसी कुत्तेको लाठी मार दी? वृक्षकी डाली तोड़ दी? किसी घासको ही तोड़ दिया? किसीको ठोकर मार दी? तो इसमें न क्रोध है? न लोभ है और न कुछ मिलनेकी सम्भावना ही है -- यह मोह (मूढ़ता) को लेकर हिंसा है। अहिंसामें इन सभी हिंसाओंका अभाव है (टिप्पणी प0 851.2)।शारीरं तप उच्यते -- देव आदिका पूजन? शौच? आर्जव? ब्रह्मचर्य और अहिंसा -- यह पाँच प्रकारका,शारीरिक तप कहा गया है। इस शारीरिक तपमें तीर्थ? व्रत? संयम आदि भी ले लेने चाहिये।जब कष्ट उठाना पड़ता है? तपन होती है? तब वह तप होता है परन्तु उपर्युक्त शारीरिक तपमें तो ऐसी कोई बात नहीं है? फिर यह तप किस प्रकार हुआ कष्ट उठाकर जो तप किया जाता है? वह वास्तवमें श्रेष्ठ कोटिका तप नहीं है। तपमें कष्टकी मुख्यता रखनेवालोंको भगवान्ने आसुरनिश्चयान् (17। 6) -- आसुर निश्चयवाले बताया है। तप तो वही श्रेष्ठ है? जिसमें उच्छृङ्खल वृत्तियोंको रोककर शास्त्र? कुलपरम्परा और लोकपरम्पराकी मर्यादाके अनुसार संयमपूर्वक चलना होता है। ऐसे ही साधन करते हुए स्वाभाविक ही देश? काल? परिस्थिति? घटना आदि अपने विपरीत आ जायँ? तो उनको साधनसिद्धिके लिये प्रसन्नतापूर्वक सहना भी तप है। इस तपमें शरीर? इन्द्रिय? मन आदिका संयम होता है।अष्टाङ्गयोगमें जहाँ यमनियमादि आठ अङ्गोंका वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 851.3)? वहाँ यम को सबसे पहले बताया है। यद्यपि पाँच ही यम हैं -- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः (योगदर्शन 2। 30) और पाँच ही नियम हैं -- शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः (योगदर्शन 2। 32)? तथापि इन दोनोंमेंसे नियमकी अपेक्षा यमकी ज्यादा महिमा है। कारण कि नियम में व्रतोंका पालन करना पड़ता है और यम में इन्द्रियों? मन आदिका संयम करना पड़ता है (टिप्पणी प0 851.4)।लोगोंकी दृष्टिमें यह बात हो सकती है कि शरीरको कष्ट देना तप है और आरामसे रहकर संयम करना? त्याग करना तप नहीं है परंतु वास्तवमें देखा जाय तो समस्त सांसारिक विषयोंमें अनासक्त होकर जो संयम? त्याग किया जाता है? वह तपसे कम नहीं है? प्रत्युत पारमार्थिक मार्गमें उसीका ऊँचा दर्जा है। कारण कि त्यागसे परमात्माकी प्राप्ति होती है -- त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता 12। 12)। केवल बाहरी तपसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं बतायी गयी है किंतु अन्तःकरणकी शुद्धिका कारण होनेसे वह तप परमात्मप्राप्तिमें सहायक हो सकता है। इसलिये साधकको मुख्यरूपसे यमोंका सेवन करते हुए समयसमयपर नियमोंका भी,पालन करते रहना चाहिये।