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Bhagavad Gita Chapter 17 Verse 10

भगवद् गीता अध्याय 17 श्लोक 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 17.10)

।।17.10।।जो भोजन अधपका? रसरहित? दुर्गन्धित? बासी और उच्छिष्ट है तथा जो महान् अपवित्र भी है? वह तामस मनुष्यको प्रिय होता है।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।17.10।। व्याख्या --   यातयामम् -- पकनेके लिये जिनको पूरा समय प्राप्त नहीं हुआ है? ऐसे अधपके या उचित समयसे ज्यादा पके हुए अथवा जिनका समय बीत गया है? ऐसे बिना ऋतुके पैदा किये हुए एवं ऋतु चली जानेपर फ्रिज आदिकी सहायतासे रखे हुए साग? फल आदि भोजनके पदार्थ।गतरसम् -- धूप आदिसे जिनका स्वाभाविक रस सूख गया है अथवा मशीन आदिसे जिनका सार खींच लिया गया है? ऐसे दूध? फल आदि।पूति -- सड़नसे पैदा की गयी मदिरा (टिप्पणी प0 842) और स्वाभाविक दुर्गन्धवाले प्याज? लहसुन आदि।पर्युषितम् -- जल और नमक मिलाकर बनाये हुए साग? रोटी आदि पदार्थ रात बीतनेपर बासी कहलाते हैं। परन्तु केवल शुद्ध दूध? घी? चीनी आदिसे बने हुए अथवा अग्निपर पकाये हुए पेड़ा? जलेबी? लड्डू आदि जो पदार्थ हैं? उनमें जबतक विकृति नहीं आती? तबतक वे बासी नहीं माने जाते। ज्यादा समय रहनेपर उनमें विकृति (दुर्गन्ध आदि) पैदा होनेसे वे भी बासी कहे जायँगे।उच्छिष्टम् -- भुक्तावशेष अर्थात् भोजनके बाद पात्रमें बचा हुआ अथवा जूठा हाथ लगा हुआ और जिसको गाय? बिल्ली? कुत्ता? कौआ आदि पशुपक्षी देख ले? सूँघ ले या खा ले -- वह सब जूठन माना जाता है।अमेध्यम् -- रजवीर्यसे पैदा हुए मांस? मछली? अंडा आदि महान् अपवित्र पदार्थ? जो मुर्दा हैं और जिनको छूनेमात्रसे स्नान करना पड़ता है (टिप्पणी प0 843.1)।अपि च -- इन अव्ययोंके प्रयोगसे उन सब पदार्थोंको ले लेना चाहिये? जो शास्त्रनिषिद्ध हैं। जिस वर्ण? आश्रमके लिये जिनजिन पदार्थोंका निषेध है? उस वर्णआश्रमके लिये उनउन पदार्थोंको निषिद्ध माना गया है जैसे मसूर? गाजर? शलगम आदि।भोजनं तामसप्रियम् -- ऐसा भोजन तामस मनुष्यको प्रिय लगता है। इससे उसकी निष्ठाकी पहचान हो जाती है।उपर्युक्त भोजनोंमेंसे सात्त्विक भोजन भी अगर रागपूर्वक खाया जाय? तो वह राजस हो जाता है और लोलुपतावश अधिक खाया जाय? (जिससे अजीर्ण आदि हो जाय) तो वह तामस हो जाता है। ऐसे ही भिक्षुकको विधिसे प्राप्त भिक्षा आदिमें रूखा? सूखा? तीखा और बासी भोजन प्राप्त हो जाय? जो कि राजसतामस है? पर वह उसको भगवान्के भोग लगाकर भगवन्नाम लेते हुए स्वल्पमात्रामें (टिप्पणी प0 843.2) खाये? तो वह भोजन भी भाव और त्यागकी दृष्टिसे सात्त्विक हो जाता है।प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात चार श्लोकोंके इस प्रकरणमें तीन तरहके -- सात्त्विक? राजस और तामस आहारका वर्णन दीखता है परन्तु वास्तवमें यहाँ आहारका प्रसङ्ग नहीं है? प्रत्युत आहारी की रुचिका प्रसङ्ग है। इसलिये यहाँ आहारी की रुचिका ही वर्णन हुआ है -- इसमें निम्नलिखित युक्तियाँ दी जी सकती हैं --(1) सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें आये यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः पदोंको लेकर अर्जुनने प्रश्न किया कि मनमाने ढंगसे श्रद्धापूर्वक काम करनेवालेकी निष्ठाकी पहचान कैसे हो तो भगवान्ने इस,अध्यायके दूसरे श्लोकमें श्रद्धाके तीन भेद बताकर तीसरे श्लोकमें सर्वस्य पदसे मनुष्यमात्रकी अन्तःकरणके अनुरूप श्रद्धा बतायी? और चौथे श्लोकमें पूज्यके अनुसार पूजककी निष्ठाकी पहचान बतायी। सातवें श्लोकमें उसी सर्वस्य पदका प्रयोग करके भगवान् यह बताते हैं कि मनुष्यमात्रको अपनीअपनी रुचके अनुसार तीन तरहका भोजन प्रिय होता है -- आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। उस प्रियतासे ही मनुष्यकी निष्ठा(स्थिति) की पहचान हो जायगी।प्रियः शब्द केवल सातवें श्लोकमें ही नहीं आया है? प्रत्युत आठवें श्लोकमें सात्त्विकप्रियाः नवें श्लोकमें,राजसस्येष्टाः और दसवें श्लोकमें तामसप्रियम् में भी प्रियः और इष्ट शब्द आये हैं? जो रुचिके वाचक हैं। यदि यहाँ आहारका ही वर्णन होता तो भगवान् प्रिय और इष्ट शब्दोंका प्रयोग न करके ये सात्त्विक आहार हैं? ये राजस आहार हैं? ये तामस आहार हैं -- ऐसे पदोंका प्रयोग करते।(2) दूसरी प्रबल युक्ति यह है कि सात्त्विक आहारमें पहले आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः पदोंसे भोजनका फल बताकर बादमें भोजनके पदार्थोंका वर्णन किया। कारण कि सात्त्विक मनुष्य भोजन करने आदि किसी भी कार्यमें विचारपूर्वक प्रवृत्त होता है? तो उसकी दृष्टि सबसे पहले उसके परिणामपर जाती है।रागी होनेसे राजस मनुष्यकी दृष्टि सबसे पहले भोजनपर ही जाती है? इसलिये राजस आहारके वर्णनमें पहले भोजनके पदार्थोंका वर्णन करके बादमें दुःखशोकामयप्रदाः पदसे उसका फल बताया है। तात्पर्य यह कि राजस मनुष्य अगर आरम्भमें ही भोजनके परिणामपर विचार करेगा? तो फिर उसे राजस भोजन करनेमें हिचकिचाहट होगी क्योंकि परिणाममें मुझे दुःख? शोक और रोग हो जायँ -- ऐसा कोई मनुष्य नहीं चाहता। परन्तु राग होनेके कारण राजस पुरुष परिणामपर विचार करता ही नहीं।सात्त्विक भोजनका फल पहले और राजस भोजनका फल पीछे बताया गया परन्तु तामस भोजनका फल बताया ही नहीं गया। कारण कि मूढ़ता होनेके कारण तामस मनुष्य भोजन और उसके परिणामपर विचार करता ही नहीं। भोजन न्याययुक्त है या नहीं? उसमें हमारा अधिकार है या नहीं? शास्त्रोंकी आज्ञा है या नहीं और परिणाममें हमारे मनबुद्धिके बलको बढ़ानेमें हेतु है या नहीं -- इन बातोंका कुछ भी विचार न करके तामस मनुष्य पशुकी तरह खानेमें प्रवृत्त होते हैं। तात्पर्य है कि सात्त्विक भोजन करनेवाला तो दैवीसम्पत्तिवाला होता है और राजस तथा तामस भोजन करनेवाला आसुरीसम्पत्तिवाला होता है।(3) यदि भगवान्को यहाँ आहारका ही वर्णन करना होता? तो वे आहारकी विधिका और उसके लिये कर्मोंकी शुद्धिअशुद्धिका वर्णन करते जैसे -- शुद्ध कमाईके पैसोंसे अनाज आदि पवित्र खाद्य पदार्थ खरीदे जायँ रसोईमें चौका देकर और स्वच्छ वस्त्र पहनकर पवित्रतापूर्वक भोजन बनाया जाय भोजनको भगवान्के अर्पण किया जाय और भगवान्का चिन्तन तथा उनके नामका जप करते हुए प्रसादबुद्धिसे भोजन ग्रहण किया जाय -- ऐसा भोजन सात्त्विक होता है।स्वार्थ और अभिमानकी मुख्यताको लेकर सत्यअसत्यका कोई विचार न करते हुए पैसे कमाये जायँ स्वाद? शरीरकी पुष्टि? भोग भोगनेकी सामर्थ्य बढ़ाने आदिका उद्देश्य रखकर भोजनके पदार्थ खरीदे जायँ जिह्वाको स्वादिष्ट लगें और दीखनेमें भी सुन्दर दीखें -- इस दृष्टिसे? रीतिसे उनको बनाया जाय और आसक्तिपूर्वक खाया जाय -- ऐसा भोजन राजस होता है।झूठकपट? चोरी? डकैती? धोखेबाजी आदि किसी तरहसे पैसे कमाये जायँ अशुद्धिशुद्धिका कुछ भी विचार न करके मांस? अंडे आदि पदार्थ खरीदे जायँ विधिविधानका कोई खयाल न करके भोजन बनाया जाय,और बिना हाथपैर धोये एवं चप्पलजूती पहनकर ही अशुद्ध वायुमण्डलमें उसे खाया जाय -- ऐसा भोजन तामस होता है।परन्तु भगवान्ने यहाँ केवल सात्त्विक? राजस और तामस पुरुषोंको प्रिय लगनेवाले खाद्य पदार्थोंका वर्णन किया है? जिससे उनकी रुचिकी पहचान हो जाय।(4) इसके सिवाय गीतामें जहाँजहाँ आहारकी बात आयी है? वहाँवहाँ आहारीका ही वर्णन हुआ है जैसे -- नियताहाराः (4। 30) पदमें नियमित आहार करनेवालेका? नात्यश्नतस्तु और युक्ताहारविहारस्य (6। 16 -- 17) पदोंमें अधिक खानेवाले और नियत खानेवालोंका यदश्नासि (9। 27) पदमें भोजनके पदार्थको भगवान्के अर्पण करनेवालेका? और लघ्वाशी (18। 52) पदमें अल्प भोजन करनेवालोंका वर्णन हुआ है।इसी प्रकार इस अध्यायमें सातवें श्लोकमें यज्ञस्तपस्तथा दानम् पदोंमें आया तथा (वैसे ही) पद यह कह रहा है कि जो मनुष्य यज्ञ? तप? दान आदि कार्य करते हैं? वे भी अपनीअपनी (सात्त्विक? राजस अथवा तामस) रुचिके अनुसार ही कार्य करते हैं। आगे ग्यारहवेंसे बाईसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है? उसमें भी यज्ञ? तप और दान करनेवालोंके स्वभावका ही वर्णन हुआ है।भोजनके लिये आवश्यक विचारउपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता है? वैसा ही मन बनता है -- अन्नमयं ही सोम्य मनः। (छान्दोग्य0 6। 5। 4) अर्थात् अन्नका असर मनपर प़ड़ता है। अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता है? दूसरे नम्बरके भागसे वीर्य? तीसरे नम्बरके भागसे रक्त आदि और चौथे नम्बरके स्थूल भागसे मल बनता है? जो कि बाहर निकल जाता है। अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्ध? पवित्र होना चाहिये। भोजनकी शुद्धिसे मन(अन्तःकरण)की शुद्धि होती है -- आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः (छान्दोग्य0 2। 26। 2)। जहाँ भोजन करते हैं? वहाँका स्थान? वायुमण्डल? दृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैं? वह आसन भी शुद्ध? पवित्र होना चाहिये। कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं? तब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते -- ग्रहण करते हैं। अतः वहाँका स्थान? वायुमण्डल आदि जैसे होंगे? प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा। भोजन बनानेवालेके भाव? विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों।भोजनके पहले दोनों हाथ? दोनों पैर और मुख -- ये पाँचों शुद्ध? पवित्र जलसे धो ले। फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंको पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।(गीता 9। 26) -- यह श्लोक पढ़कर भगवान्के अर्पण कर दे। अर्पणके बाद दायें हाथमें जल लेकर ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। (गीता 4। 24) -- यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्का नाम लेकर ही मुखमें डाले। प्रत्येक ग्रासको चबाते समय हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। -- इस मन्त्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले। इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़नेसे बत्तीस नाम हो जाते हैं। हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं। अतः (मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ) बत्तीस बार चबानेसे वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्नसे ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है।भोजन करते समय ग्रासग्रासमें भगन्नामजप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है (टिप्पणी प0 845.1)।जो लोग ईर्ष्या? भय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैं? और रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं? वे जिस भोजनको करते हैं? वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है (टिप्पणी प0 845.2)। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे। मनमें काम? क्रोध? लोभ? मोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे। यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करे क्योंकि वृत्तियोंका असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्तःकरण बनता है। ऐसा भी सुननेमें आया है कि फौजी लोग जब गायको दुहते हैं? तब दुहनेसे पहले बछ़ड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़ेके पीछे कुत्ता छोड़ते हैं। अपने बछ़ड़ेके पीछे कुत्तेको देखकर जब गाय गुस्सेमें आ जाती है? तब बछड़ेको लाकर बाँध देते हैं और फिर गायको दुहते हैं। वह दूध फौजियोंको पिलाते हैं? जिससे वे लोग खूँखार बनते हैं।ऐसे ही दूधका भी असर प्राणियोंपर पड़ता है। एक बार किसीने परीक्षाके लिये कुछ घोड़ोंको भैंसका दूध और कुछ घोड़ोंको गायका दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया। एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे। रास्तेमें नदीका जल था। भैंसका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलमें बैठ गये और गायका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलको पार कर गये। इसी प्रकार बैल और भैंसेका परस्पर युद्ध कराया जाय? तो भैंसा बैलको मार देगा परन्तु यदि दोनोंको गाड़ीमें जोता जाय? तो भैंसा धूपमें जीभ निकाल देगा? जबकि बैल धूपमें भी चलता रहेगा। कारण कि भैंसके दूधमें सात्त्विक बल नहीं होता? जबकि गायके दूधमें सात्त्विक बल होता है।जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता है? ऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है। बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है? तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है। अब वह भोजन पवित्र कैसे हो भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय? तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे। उसको देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे? तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है।दूसरी बात? लोग बछ़ड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं। वह दूध पवित्र नहीं होता क्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है। बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकले? वह चाहे पावभर ही क्यों न हो? बहुत पवित्र होता है।भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता है जैसे -- (1) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी? वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा। (2) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता है परन्तु भोजन करनेवाला मुफ्तमें भोजन मिल गया अपने इतने पैसे बच गये इससे मेरेमें बल आ जायगा आदि स्वार्थका भाव रख लेता है? तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है? और (3) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि यह घरपर आ गया? तो खर्चा करना पड़ेगा? भोजन बनाना पड़ेगा? भोजन कराना ही पड़ेगा आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है? तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा।इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है -- सर्वभूतहिते रताः (5। 25? 12। 4)। तात्पर्य यह है कि जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव जितना अधिक होगा? उसके पदार्थ? क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी।भोजनके अन्तमें आचमनके बाद ये श्लोक पढ़ने चाहिये -- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। कर्म ब्रह्मोद्भं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।(गीता 3। 14 -- 15)फिर भोजनके पाचनके लिये अहं वैश्वानरो भूत्वा0 (गीता 15। 14) श्लोक पढ़ते हुए मध्यमा अङ्गुलीसे नाभिको धीरेधीरे घुमाना चाहिये। सम्बन्ध --   पहले यजनपूजन और भोजनके द्वारा जो श्रद्धा बतायी? उससे शास्त्रविधिका अज्ञतापूर्वक त्याग करनेवालोंकी स्वाभाविक निष्ठा -- रुचिकी तो पहचान हो जाती है परन्तु जो मनुष्य व्यापार? खेती आदि जीविकाके कार्य करते हैं अथवा शास्त्रविहित यज्ञादि शुभकर्म करते हैं? उनकी स्वाभाविक रुचिकी पहचान कैसे हो -- यह बतानेके लिये यज्ञ? तप और दानके तीनतीन भेदोंका प्रकरण आरम्भ करते हैं।