Bhagavad Gita Chapter 16 Verse 7 भगवद् गीता अध्याय 16 श्लोक 7 प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।16.7।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।16.7।। आसुरी स्वभाव के लोग न प्रवृत्ति को जानते हैं और न निवृत्ति को उनमें न शुद्धि होती है? न सदाचार और न सत्य ही होता है।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।16.7।। यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति के शब्द क्रमश कर्तव्य कर्म और अकर्तव्य अर्थात् निषिद्ध कर्म हैं।धार्मिक अनुष्ठानकर्ता कर्तव्य पालन और निस्वार्थ समाज सेवा के द्वारा न केवल तात्कालिक लाभ को प्राप्त करता है अपितु अन्तकरण की शुद्धि भी प्राप्त करता है? क्योंकि वह कभी अपने सर्वोच्च लक्ष्य को विस्मृत नहीं होने देता। निषिद्ध कर्मों से विरति ही निवृत्ति कहलाती है। अकर्तव्य का त्याग ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर होता है। असुर लोगों को कर्तव्य और अकर्तव्य का सर्वथा अज्ञान होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि आसुरी गुणों की सूची अज्ञान से प्रारम्भ होती है। यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवशात् किसी प्रकार का अपराध करता है? तो समाज के सहृदय पुरुषों के मन में उसके प्रति क्षमा का भाव सहज उदित होता है? भले ही न्यायालय में उसे क्षमा के योग्य कारण न माना जाये।बाह्य शुद्धि? बहुत कुछ मात्रा में मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व की परिचायक होती है। श्रेष्ठ शिक्षा और संस्कारी पुरुष में ही यह शुद्धि हमें देखने को मिलती है।अज्ञानी पुरुष में अन्तर्बाह्य शुद्धि का अभाव होता है। ऐसे अनुशासनविहीन पुरुष का व्यवहार (आचार) भी विनयपूर्ण नहीं हो सकता? क्योंकि बाह्य आचरण मनुष्य के स्वभाव की ही अभिव्यक्ति है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि आसुरी लोगों में सदाचार का अभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।अविवेक? अशौच तथा अनाचार से युक्त पुरुष अपने वचनों की सत्यता का पालन कभी नहीं कर सकता। यदि हम इन उल्लिखित गुणों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करें? तो हमें स्पष्ट बोध होगा कि भगवान् के हृदय में इन दुराचारियों के प्रति कितनी करुणा है। सम्पूर्ण गीता में? इनके प्रति रञ्चमात्र भी प्रतिशोध या द्वेष का भाव प्रकट नहीं किया गया है। हम यह नहीं कह सकते कि आसुरी पुरुष जानबूझ कर असत्य का अनुकरण करता है। वास्तविकता यह है कि वह अपने स्वभाव से विवश निष्कपट व्यवहार करने में स्वयं को सर्वथा असमर्थ पाता है।