Bhagavad Gita Chapter 16 Verse 16 भगवद् गीता अध्याय 16 श्लोक 16 अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 16.16) ।।16.16।।कामनाओंके कारण तरहतरहसे भ्रमित चित्तवाले? मोहजालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयङ्कर नरकोंमें गिरते हैं। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।16.16।। अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले? मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त ये लोग घोर? अपवित्र नरक में गिरते हैं।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।16.16।। व्याख्या --   अनेकचित्तविभ्रान्ताः -- उन आसुर मनुष्योंका एक निश्चय न होनेसे उनके मनमें अनेक तरहकी चाहना होती है? और उस एकएक चाहनाकी पूर्तिके लिये अनेक तरहके उपाय होते हैं तथा उन उपायोंके विषयमें उनका अनेक तरहका चिन्तन होता है। उनका चित्त किसी एक बातपर स्थिर नहीं रहता? अनेक तरहसे भटकता ही रहता है।मोहजालसमावृताः -- जडका उद्देश्य होनेसे वे मोहजालसे ढके रहते हैं। मोहजालका तात्पर्य है कि तेरहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक काम? क्रोध और अभिमानको लेकर जितने मनोरथ बताये गये हैं? उन सबसे वे अच्छी तरहसे आवृत रहते हैं अतः उनसे वे कभी छूटते नहीं। जैसे मछली जालमें फँस जाती है? ऐसे ही वे प्राणी मनोरथरूप मोहजालमें फँसे रहते हैं। उनके मनोरथोंमें भी केवल एक तरफ ही वृत्ति नहीं होती? प्रत्युत दूसरी तरफ भी वृत्ति रहती है जैसे -- इतना धन तो मिल जायगा? पर उसमें अमुकअमुक बाधा लग जायगी तो हमारे पास दो नम्बरकी इतनी पूँजी है? इसका पता राजकीय अधिकारियोंको लग जायगा तो हमारे मुनीम? नौकर आदि हमारी शिकायत कर देंगे तो हम अमुक व्यक्तिको मार देंगे? पर हमारी न चली और दशा विपरीत हो गयी तो हम अमुकका नुकसान करेंगे? पर उससे हमारा नुकसान हो गया तो -- इस प्रकार मोहजालमें फँसे हुए आसुरी सम्पदावालोंमें काम? क्रोध और अभिमानके साथसाथ भय भी बना रहता है। इसलिये वे निश्चय नहीं कर पाते। कहींपर जाते हैं ठीक करनेके लिये? पर हो जाता है बेठीक मनोरथ सिद्ध न होनेसे उनको जो दुःख होता है? उसको तो वे ही जानते हैंप्रसक्ताः कामभोगेषु -- वस्तु आदिका संग्रह करने और उसका उपभोग करनेमें तथा मानबड़ाई? सुखआराम आदिमें वे अत्यन्त आसक्त रहते हैं।पतन्ति नरकेऽशुचौ -- मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक है और मरनेके बाद उन्हें कुम्भीपाक? महारौरव आदि स्थानविशेष नरकोंकी प्राप्ति होती है। उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं। नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है? ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं (टिप्पणी प0 822) क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है? मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है। सम्बन्ध --   भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे विमुख हुए आसुरीसम्पदावालोंके दुराचारोंका फल नरकप्राप्ति बताकर? दुराचारोंद्वारा बोये गये दुर्भावोंसे वर्तमानमें उनकी कितनी भयंकर दुर्दशा होती है और भविष्यमें उसका क्या परिणाम होता है -- इसे बतानेके लिये आगेका (चार श्लोकोंका) प्रकरण आरम्भ करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।16.16।। अनेकचित्त विभ्रान्ता आत्मकेन्द्रित और विषयासक्त पुरुष का मन सदैव अस्थिर रहता है। अनेक प्रकार की भ्रामक कल्पनाओं में वह अपनी मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेता है।मोहजाल समावृता यदि ऐसे आसुरी पुरुष का मन सारहीन स्वप्नों में बिखरा होता है? तो उसकी बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। विवेक और निर्णय की उसकी क्षमता मोह और असत् मूल्यों में फँस जाती है। आश्रियविहीन बुद्धि किस प्रकार उचित निर्णय और जीवन का सही मूल्यांकन कर सकती है ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा जगत् का अवलोकन करने पर सर्वत्र विषमता और विकृति के ही दर्शन होंगे? समता और संस्कृति के नहीं।विषयों में आसक्त जिस पुरुष की बुद्धि मोह से आच्छादित हो और मन विक्षेपों से अशान्त हो? तो उसकी इन्द्रियाँ भी असंयमित ही होंगी। यदि कार की चालकशक्ति ही मदोन्मत्त हो? तो कार की गति भी संयमित नहीं हो सकती। इस लिए? ऐसे आसुरी स्वभाव के पुरुष विषयभोगों में अत्यधिक आसक्त हो,जाते हैं।वे अपवित्र नरक में गिरते हैं शरीर से थके? मन से भ्रमित और बुद्धि से विचलित ये लोग यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहते हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए हमें कोई महान् दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य में यह सार्मथ्य है कि वह समता के दर्शन से नरक को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकता है और विषमता के दर्शन से स्वर्ग को नरक भी बना सकता है। अयुक्त व्यक्तित्व का पुरुष किसी भी स्थिति में शान्ति और पूर्णता का अनुभव नहीं करता। यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों? तो वह अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना देता है।यदि इन आसुरी गुणों से युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दुखद बना सकता है? तो हम उस जगत् की दशा की भलीभांति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों की कमअधिक मात्रा में ये ही धारणायें होती हैं। स्वर्ग और नरक का होना हमारे अन्तकरण की समता और विषमता पर निर्भर करता है।आगे कहते हैं