Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 2 भगवद् गीता अध्याय 15 श्लोक 2 अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।15.2।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 15.2) ।।15.2।।उस संसारवृक्षकी गुणों(सत्त्व? रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे? मध्यमें और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं। मनुष्यलोकमें कर्मोंके अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकोंमें) व्याप्त हो रहे हैं। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।15.2।। उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं (पंच) विषय इसके अंकुर हैं मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।15.2।। व्याख्या --   तस्य शाखा गुणप्रवृद्धाः -- संसारवृक्षकी मुख्य शाखा ब्रह्मा है। ब्रह्मासे सम्पूर्ण देव? मनुष्य? तिर्यक् आदि योनियोंकी उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिये ब्रह्मलोकसे पातालतक जितने भी लोक तथा उनमें रहनेवाले देव? मनुष्य? कीट आदि प्राणी हैं? वे सभी संसारवृक्षकी शाखाएँ हैं। जिस प्रकार जल सींचनेसे वृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं? उसी प्रकार गुणरूप जलके सङ्गसे इस संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं। इसीलिये भगवान्ने जीवात्माके ऊँच? मध्य और नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका सङ्ग ही बताया है (गीता 13। 21 14। 18)। सम्पूर्ण सृष्टिमें ऐसा कोई देश? वस्तु? व्यक्ति नहीं? जो प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुणोंसे रहित हो (गीता 18। 40)। इसलिये गुणोंके सम्बन्धसे ही संसारकी स्थिति है। गुणोंकी अनुभूति गुणोंसे उत्पन्न वृत्तियों तथा पदार्थोंके द्वारा होती है। अतः वृत्तियों तथा पदार्थोंसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करानेके लिये ही गुणप्रवृद्धाः पद देकर भगवान्ने यहाँ यह बताया है कि जबतक गुणोंसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध है? तबतक संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती ही रहेंगी। अतः संसारवृक्षका छेदन करनेके लिये गुणोंका सङ्ग किञ्चिन्मात्र भी नहीं रखना चाहिये क्योंकि गुणोंका सङ्ग रहते हुए संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता।विषयप्रवालाः -- जिस प्रकार शाखासे निकलनेवाली नयी कोमल पत्तीके डंठलसे लेकर पत्तीके अग्रभागतकको प्रवाल (कोंपल) कहा जाता है? उसी प्रकार गुणोंकी वृत्तियोंसे लेकर दृश्य पदार्थमात्रको यहाँ,विषयप्रवालाः कहा गया है।वृक्षके मूलसे तना (मुख्य शाखा)? तनेसे शाखाएँ और शाखाओँसे कोंपलें फूटती हैं और कोंपलोंसे शाखाएँ आगे बढ़ती हैं। इस संसारवृक्षमें विषयचिन्तन ही कोंपलें हैं। विषयचिन्तन तीनों गुणोंसे होता है। जिस प्रकार गुणरूप जलसे संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं? उसी प्रकार गुणरूप जलसे विषयरूप कोंपलें भी बढ़ती हैं। जैसे कोंपलें दीखती हैं? उनमें व्याप्त जल नहीं दीखता? ऐसे ही शब्दादि विषय तो दीखते हैं? पर उनमें गुण नहीं दीखते। अतः विषयोंसे ही गुण जाने जाते हैं।विषयप्रवालाः पदका भाव यह प्रतीत होता है कि विषयचिन्तन करते हुए मनुष्यका संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 745.1) (गीता 2। 62 -- 63)। अन्तकालमें मनुष्य जिसजिस भावका चिन्तन करते हुए शरीरका त्याग करता है? उसउस भावको ही प्राप्त होता है (गीता 8। 6) -- यही विषयरूप कोंपलोंका फूटना है।कोंपलोंकी तरह विषय भी देखनेमें बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं? जिससे मनुष्य उनमें आकर्षित हो जाता है। साधक अपने विवेकसे परिणामपर विचार करते हुए इनको क्षणभङ्गुर? नाशवान् और दुःखरूप जानकर इन विषयोंका सुगमतापूर्वक त्याग कर सकता है (गीता 5। 22)। विषयोंमें सौन्दर्य और आकर्षण अपने रागके कारण ही दीखता है? वास्तवमें वे सुन्दर और आकर्षक है नहीं। इसलिये विषयोंमें रागका त्याग ही वास्तविक त्याग है। जैसे कोमल कोंपलोंको नष्ट करनेमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता? ऐसे ही इन विषयोंके त्यागमें भी साधकको कठिनता नहीं माननी चाहिये। मनसे आदर देनेपर ही ये विषयरूप कोंपलें सुन्दर और आकर्षक दीखती हैं? वास्तवमें तो ये विषयुक्त लड्डूके समान ही हैं (टिप्पणी प0 745.2)। इसलिये इस संसारवृक्षका छेदन करनेके लिये भोगबुद्धिपूर्वक विषयचिन्तन एवं विषयसेवनका सर्वथा त्याग करना आवश्यक है (टिप्पणी प0 745.3)। अधश्चोर्ध्वं प्रसृताः -- यहाँ च पदको मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक(इसी श्लोकके मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि,पदों) का वाचक समझना चाहिये। ऊर्ध्वम् पदका तात्पर्य ब्रह्मलोक आदिसे है? जिसमें जानेके दो मार्ग हैं -- देवयान और पितृयान (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें शुक्ल और कृष्णमार्गके नामसे हुआ है)। अधः पदका तात्पर्य नरकोंसे है? जिसके भी दो भेद हैं -- योनिविशेष नरक और स्थानविशेष नरक।इन पदोंसे यह कहा गया है कि ऊर्ध्वमूल परमात्मासे नीचे? संसारवृक्षकी शाखाएँ नीचे? मध्य और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। इसमें मनुष्ययोनिरूप शाखा ही मूल शाखा है क्योंकि मनुष्ययोनिमें नवीन कर्मोंको करनेका अधिकार है। अन्य शाखाएँ भोगयोनियाँ हैं? जिनमें केवल पूर्वकृत कर्मोंका फल भोगनेका ही अधिकार है। इस मनुष्ययोनिरूप मूल शाखासे मनुष्य नीचे (अधोलोक) तथा ऊपर (ऊर्ध्वलोक) -- दोनों ओर जा सकता है और संसारवृक्षका छेदन करके सबसे ऊर्ध्व (परमात्मा) तक भी जा सकता है। मनुष्यशरीरमें ऐसा विवेक है? जिसको महत्त्व देकर जीव परमधामतक पहुँच सकता है और अविवेकपूर्वक विषयोंका सेवन करके नरकोंमें भी जा सकता है। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है -- नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।(मानस 7। 121। 5)अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके -- मनुष्यके अतिरिक्त दूसरी सब भोगयोनियाँ हैं। मनुष्ययोनिमें किये हुए पापपुण्योंका फल भोगनेके लिये ही मनुष्यको दूसरी योनियोंमें जाना पड़ता है। नये पापपुण्य करनेका अथवा पापपुण्यसे रहित होकर मुक्त होनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है।यहाँ मूलानि पदका तात्पर्य तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूलसे है? वास्तविक ऊर्ध्वमूल परमात्मासे नहीं। मैं शरीर हूँ -- ऐसा मानना तादात्म्य है। शरीरादि पदार्थोंको अपना मानना ममता है। पुत्रैषणा? वित्तैषणा और लोकैषणा -- ये तीन प्रकारकी मुख्य कामनाएँ हैं। पुत्रपरिवारकी कामना पुत्रैषणा और धनसम्पत्तिकी कामना वित्तैषणा है। संसारमें मेरा मानआदर हो जाय? मैं बना रहूँ? शरीर नीरोग रहे? मैं शास्त्रोंका पण्डित बन जाऊँ आदि अनेक कामनाएँ लोकैषणा के अन्तर्गत हैं। इतना ही नहीं कीर्तिकी कामना मरनेके बाद भी इस रूपमें रहती है कि लोग मेरी प्रशंसा करते रहें मेरा स्मारक बन जाय मेरी स्मृतिमें पुस्तकें बन जायँ लोग मुझे याद करें? आदि। यद्यपि कामनाएँ प्रायः सभी योनियोंमें न्यूनाधिकरूपसे रहती हैं? तथापि वे मनुष्ययोनिमें ही बाँधनेवाली होती हैं (टिप्पणी प0 746)। जब कामनाओंसे प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है? तब उन कर्मोंके संस्कार उसके अन्तःकरणमें संचित होकर भावी जन्ममरणके कारण बन जाते हैं। मनुष्ययोनिमें किये हुए कर्मोंका फल इस जन्ममें तथा मरनेके बाद भी अवश्य भोगना पड़ता है (गीता 18। 12)। अतः तादात्म्य? ममता और कामनाके रहते हुए कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं छूट सकता।यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है? वहींसे छुटकारा होता है जैसे -- रस्सीकी गाँठ जहाँ लगी है? वहींसे वह खुलती है। मनुष्ययोनिमें ही जीव शुभाशुभ कर्मोंसे बँधता है अतः मनुष्ययोनिमें ही वह मुक्त हो सकता है।पहले श्लोकमें आये ऊर्ध्वमूलम् पदका तात्पर्य है -- परमात्मा? जो संसारके रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं और यहाँ मूलानि पदका तात्पर्य है -- तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल? जो संसारमें मनुष्यको बाँधते हैं। साधकको इन (तादात्म्य? ममता और कामनारूप) मूलोंका तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्माका आश्रय लेना है? जिसका उल्लेख तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये पदसे इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें हुआ है।मनुष्यलोकमें कर्मानुसार बाँधनेवाले तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल नीचे और ऊपर सभी लोकों? योनियोंमें व्याप्त हो रहे हैं। पशुपक्षियोंका भी अपने शरीरसे तादात्म्य रहता है? अपनी सन्तानमें ममता होती है और भूख लगनेपर खानेके लिये अच्छे पदार्थोंकी कामना होती है। ऐसे ही देवताओंमें भी अपने दिव्य शरीरसे तादात्म्य? प्राप्त पदार्थोंमें ममता और अप्राप्त भोगोंकी कामना रहती है। इस प्रकार तादात्म्य? ममता और कामनारूप दोष किसीनकिसी रूपमें ऊँचनीच सभी योनियोंमें रहते हैं। परन्तु मनुष्ययोनिके सिवाय दूसरी योनियोंमें ये बाँधनेवाले नहीं होते। यद्यपि मनुष्ययोनिके सिवाय देवादि अन्य योनियोंमें भी विवेक रहता है? पर भोगोंकी अधिकता होने तथा भोग भोगनेके लिये ही उन योनियोंमें जानेके कारण उनमें विवेकका उपयोग नहीं हो पाता। इसलिये उन योनियोंमें उपर्युक्त दोषोंसे स्वयं को (विवेकके द्वारा) अलग देखना सम्भव नहीं है। मनुष्ययोनि ही ऐसी है? जिसमें (विवेकके कारण) मनुष्य ऐसा अनुभव कर सकता है कि मैं (स्वरूपसे) तादात्म्य? ममता और कामनारूप दोषोंसे सर्वथा रहित हूँ।भोगोंके परिणामपर दृष्टि रखनेकी योग्यता भी मनुष्यशरीरमें ही है। परिणामपर दृष्टि न रखकर भोग भोगनेवाले मनुष्यको पशु कहना भी मानो पशुयोनिकी निन्दा ही करना है क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आ रहा है? पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनिकी तरफ ही जा रहा है। सम्बन्ध --   पीछेके दो श्लोकोंमें संसारवृक्षका जो वर्णन किया गया है? उसका प्रयोजन क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।15.2।। संसार वृक्ष का और विस्तृत चित्रांकन इस श्लोक में किया गया है। गूढ़ अभिप्राय वाले प्रतीकों को शब्दश नहीं लेना चाहिये? फिर वे प्रतीक साहित्य के हों अथवा कला के। वेदों की शैली ही लक्षणात्मक है। दर्शनशास्त्र के सूक्ष्म सिद्धान्तों को व्यक्त करने के लिए जगत् की किसी उपयुक्त वस्तु का वर्णन ऐसी काव्यात्मक शैली में करना? जिससे धर्म के गूढ़ सन्देश या अभिप्राय का बोध कराया जा सके? लक्षणात्मक शैली कही जाती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की शाखाएं ऊपर और नीचे फैली हुईं हैं। इनसे तात्पर्य देवता? मनुष्य? पशु इत्यादि योनियों से है। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा जगत् के विकास की दिशा कभी उन्नति की ओर होती है? किन्तु प्राय यह पशु जीवन के निम्न स्तर की ओर रहती है। अध और ऊर्ध्व इन दो शब्दों से इन्हीं दो दिशाओं अथवा प्रवृत्तियों की ओर निर्देश किया गया है।गुणों से प्रवृद्ध हुई जीवों की ऊर्ध्व या अधोगामी प्रवृत्तियों का धारण पोषण प्रकृति के सत्त्व? रज और तम? इन तीन गुणों के द्वारा किया जाता है। इन गुणों का विस्तृत विवेचन पूर्व अध्याय में किया जा चुका है।किसी भी वृक्ष की शाखाओं पर हम अंकुर या कोपलें देख सकते हैं जहाँ से अवसर पाकर नईनई शाखाएं फूटकर निकलती हैं। प्रस्तुत रूपक में इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों को प्रवाल अर्थात् अंकुर कहा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि विषयों की उपस्थिति में हम अपने उच्च आदर्शों को विस्मृत कर विषयाभिमुख हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन भोगों की पूर्ति के लिये उन्मत्त होकर नयेनये कर्म करते हैं। अत विषयों को प्रवाल कहना समीचीन है।इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की गौण जड़ें नीचे फैली हुई हैं। परमात्मा तो इस संसार वृक्ष का अधिष्ठान होने से इसका मुख्य मूल है किन्तु इसकी अन्य जड़े भी हैं ? जो इस वृक्ष का अस्तित्व बनाये रखती हैं। मनुष्य देह में यह जीव असंख्य प्रकार के कर्म और कर्मफल का भोग करता है? जिसके फलस्वरूप उसके मन में नये संस्कार या वासनाएं अंकित होती जाती हैं। ये वासनाएं ही अन्य जड़ें हैं? जो मनुष्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिये कर्मों में प्रेरित करती रहती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का कारण भी ये वासनाएं ही हैं। जैसा कि लोक में हम देखते हैं? वृक्ष की ये अन्य जड़ें ऊपर से नीचे पृथ्वी में प्रवेश कर वृक्ष को दृढ़ता से स्थिर कर देती हैं? वैसे ही ये संस्कार शुभाशुभ कर्म और कर्मफल को उत्पन्न कर मनुष्य को इस लोक के राग और द्वेष? लाभ और हानि? आय और व्यय आदि प्रवृत्तियों के साथ बाँध देते हैं।अगले दो श्लोकों में इसका वर्णन किया गया है कि किस प्रकार हम इस संसार वृक्ष को काटकर इसके ऊर्ध्वमूल परमात्मा का अपने आत्मस्वरूप से अनुभव कर सकते हैं