Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 12 भगवद् गीता अध्याय 15 श्लोक 12 यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।15.12।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।15.12।। जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है? उस तेज को तुम मेरा ही जानो।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।15.12।। आधुनिक विज्ञान के निष्कर्षों से परिचित हम लोग प्रस्तुत श्लोक के अर्थ को पढ़कर विचलित होते हैं और उसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। परन्तु पूर्वाग्रहों को त्यागकर धैर्यपूर्वक यदि हम चिन्तन करें? तो हमें ज्ञात होगा कि हमारा भ्रम केवल अपनी बुद्धि का सीमितता के कारण ही है। हम सदैव भौतिक वस्तुओं का ही बौद्धिक अध्ययन करते हैं? इसलिये आध्यात्मिक विषयों को समझने में हमें कठिनाई होती है। विज्ञान की प्रारम्भिक कक्षाओं में ही हमें बताया जाता है कि पृथ्वी सूर्य से ही विलग हुआ एक भाग है? जो ग्रहों के परस्पर आकर्षणों के द्वारा इस स्थिति में धारण किया हुआ है। यह पृथ्वी शनै शनै शीतल हुई वर्तमान तापमान को पहुँची है। परन्तु? यदि हम विज्ञान के उस अध्यापक से पूछें कि सूर्य की उत्पत्ति कैसे हुई? तो वह न केवल कुछ विचलित हो जाता है? वरन् उसे कुछ क्रोध भी आ जाता है? जो क्षम्य है जहाँ इन्द्रियगोचर तथ्यों को एकत्र करके सिद्ध किया जा सकता है? भौतिक विज्ञान की गति केवल उसी परिसीमा में हो सकती है।परन्तु? दर्शनशास्त्र का प्रयोजन जगत् के आदिस्रोत के संबंध में मानव की बुद्धि की जिज्ञासा को शांत करना है? हो सकता है कि उसके इस प्रयत्न के लिये आवश्यक वौज्ञानिक तथ्य प्रयोगशाला में उपलब्ध न हों केवल अपनी बुद्धि से विचार करने की एक निश्चित सीमा होती है? जहाँ पहुँचकर बुद्धि और उसके निरीक्षण? उसके अनुमान और निष्कर्ष? उसके तर्क और निश्चित किये गये मत? इन सबका थक कर शान्त हो जाना अवश्यंभावी होता है और फिर भी उसकी जिज्ञासा पूर्णत शान्त नहीं होती? क्योंकि सत्यान्वेषक बुद्धि प्रश्न पूछती ही रहती है क्यों कैसे क्या परन्तु? वहाँ विज्ञान मौन रह जाता है। जहाँ विज्ञान का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है? और जहाँ से आगे के पथ को वह प्रकाशित नहीं कर पाता है? वहाँ से परम सन्तोष की ओर दर्शनशास्त्र की तीर्थयात्रा प्रारम्भ होती है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है ? वह वस्तुत मुझ चैतन्य स्वरूप का ही प्रकाश है। इसी प्रकार? चन्द्रमा और अग्नि के माध्यम से व्यक्त होने वाला प्रकाश भी मेरी ही विविध प्रकार की अभिव्यक्ति है।अभिव्यक्ति की विविधता विद्यमान उपाधियों की विभिन्नता के कारण होती है। एक ही विद्युत् शक्ति बल्ब? पंखा आदि उपकरणों से विभन्न रूप में व्यक्त होती है। इसी प्रकार सूर्य? चन्द्र और अग्नि का प्रकाश का अन्तर इन तीनों उपाधियों के कारण है? न कि इनके द्वारा व्यक्त हो रहे चैतन्य में। परमात्मा स्वयं को विविध रूप में व्यक्त करता है? जिससे ऐसा अनुकूल वातावरण बन सके कि जगत् की स्थिति बनी रहे और वह स्वयं विविधता की अपनी क्रीड़ा कर सके आगे कहते है