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Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 9

भगवद् गीता अध्याय 13 श्लोक 9

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 13.9)

।।13.9।।इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना? अहंकारका भी न होना और जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बारबार देखना।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।13.9।। इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य? अहंकार का अभाव? जन्म? मृत्यु? वृद्धवस्था? व्याधि और दुख में दोष दर्शन৷৷.।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।13.9।। व्याख्या --   इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् -- लोकपरलोकके शब्दादि समस्त विषयोंमें इन्द्रियोंका खिंचाव न होना ही इन्द्रियोंके विषयोंमें रागरहित होना है। इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवननिर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग? आसक्ति? प्रियता नहीं होनी चाहिये।उपाय -- (1) विषयोंमें राग होनेसे ही विषयोंकी महत्ता दीखती है? संसारमें आकर्षण होता है और इसीसे सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयोंमें ही राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति कैसे होगी अगर रागका त्याग कर दें तो परमात्मामें स्थिति हो जायगी -- ऐसा विचार करनेसे विषयोंसे वैराग्य हो जाता है।(2) बड़ेबड़े धनी? शूरवीर? राजामहाराजा हुए और उन्होंने बहुतसे भोगोंको भोगा? पर अन्तमें उनका क्या रहा कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमजोर हो गये और अन्तमें सब चले गये। इस प्रकार विचार करनेसे भी वैराग्य हो जाता है।(3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं? जिनके पास भोगसामग्री नहीं है? जो संसारसे विरक्त हैं? उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं? उनमें क्या विलक्षणता? विशेषता आयी कुछ नहीं? प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोकचिन्तामें डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करनेसे भी वैराग्य होता है।अनहंकार एव च -- प्रत्येक व्यक्तिके अनुभवमें मैं हूँ -- इस प्रकारकी एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीरके साथ मिलकर मैं शरीर हूँ -- इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात् अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसीके कारण शरीर? नाम? क्रिया? पदार्थ? भाव? ज्ञान? त्याग? देश? काल आदिके साथ अपना सम्बन्ध मानकर जीव ऊँचनीच योनियोंमें जन्मतामरता रहता है (गीता 13। 21)। यह अहंकार साधनमें प्रायः बहुत दूरतक रहता है। वास्तवमें इसकी सत्ता नहीं है? फिर भी स्वयंकी मान्यता होनेके कारण व्यक्तित्वके रूपमें इसका भान होता रहता है। भगवान्द्वारा ज्ञानके साधनोंमें इस पदका प्रयोग किये जानेका तात्पर्य शरीरादिमें माने हुए अहंकारका सर्वथा अभाव करनेमें है क्योंकि जडचेतनका यथार्थ बोध होनेपर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकाररहित हो सकता है? इसीलिये भगवान् यहाँ अनहंकारः पदसे अहंकारका त्याग करनेकी बात कहते हैं।अभिमान और अहंकारका प्रयोग एक साथ होनेपर उनसे अलगअलग भावोंका बोध होता है। सांसारिक चीजोंके सम्बन्धसे अभिमान पैदा होता है। ऐसे ही त्याग? वैराग्य? विद्या आदिको लेकर अपनेमें विशेषता देखनेसे भी अभिमान पैदा होता है। शरीरको ही अपना स्वरूप माननेसे अंहकार पैदा होता है। यहाँ,अनहंकारः पदसे अभिमान और अहंकार -- दोनोंके सर्वथा अभावका अर्थ लेना चाहिये।मनुष्यको नींदसे जगनेपर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ -- इस वृत्तिका ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर? नाम? जाति? वर्ण? आश्रम आदिका हूँ -- ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्गमें भी अहंकारके नाशका एक क्रम है। सबसे पहले स्थूलशरीरसे सम्बन्धित धनादि पदार्थोंका अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहनेवाले कर्तृत्वाभिमानका नाश होता है। उसके बाद बुद्धिकी प्रधानतासे रहनेवाला ज्ञातापनका अहंकार मिटता है। अन्तमें अहम् वृत्तिकी प्रधानतासे जो साक्षीपनका अहंकार है? वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है।उपाय -- (1) अपनेमें श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है? जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे? गाँवभरमें एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होनेका अभिमान होता है। परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होनेका अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे? प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे (टिप्पणी प0 681.1)।(2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीरमें व्याप्त है? ऐसे ही वह अन्य शरीरोंमें भी व्याप्त है -- सर्वगतः (गीता 2। 24)। परन्तु मनुष्य अज्ञानसे सर्वव्यापी आत्माको एक अपने शरीरमें ही सीमित मानकर शरीरको मैं मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंकमें रखे हुए बहुतसे रुपयोंमेंसे केवल अपने द्वारा जमा किये हुए कुछ रुपयोंमें ही ममता करके? उनके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको धनी मान लेता है? ऐसे ही एक शरीरमें मैं शरीर हूँ -- ऐसी अहंता करके वह कालसे सम्बन्ध मानकर मैं इस समयमें हूँ? देशसे सम्बन्ध मानकर मैं यहाँ हूँ? बुद्धिसे सम्बन्ध मानकर मैं समझदार हूँ? वाणीसे सम्बन्ध मानकर मैं वक्ता हूँ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकारके सम्बन्ध न मानना ही अहंकार रहित होनेका उपाय है। (3) शास्त्रोंमें परमात्माका सच्चिदानन्दघनरूपसे वर्णन आया है। सत् (सत्ता)? चित् (ज्ञान) और आनन्द (अविनाशी सुख) -- ये तीनों परमात्माके भिन्नभिन्न स्वरूप नही हैं? प्रत्युत एक ही परमात्मतत्त्वके तीन नाम हैं। अतः साधक इन तीनोंमेंसे किसी एक विशेषणसे भी परमात्माका लक्ष्य करके निर्विकल्प (टिप्पणी प0 681.2) हो सकता है। निर्विकल्प होनेसे उसको परमात्मतत्त्वमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका,अनुभव हो जाता है और अहंकारका सर्वथा नाश हो जाता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिये -- (क) सत् -- परमात्मतत्त्व सदासे ही था? सदासे है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनताबिगड़ता नहीं? कमज्यादा भी नहीं होता? सदा ज्योंकात्यों रहता है -- ऐसा बुद्धिके द्वारा विचार करके निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधकका बुद्धिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और उस सत्तत्त्वमें अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।(ख) चित् -- जैसे प्रत्येक व्यक्तिके शरीरादि अहम् के अन्तर्गत दृश्य हैं? ऐसे ही अहम् भी (मैं? तू? यह और वहके रूपमें) एक ज्ञानके अन्तर्गत दृश्य है (टिप्पणी प0 681.3)। उस ज्ञान(चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे परमात्मतत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता।(ग) आनन्द -- साधकलोग प्रायः बुद्धि और अहम्को प्रकाशित करनेवाले चेतनको भी बुद्धिके द्वारा ही जाननेकी चेष्टा किया करते हैं। वास्तवमें बुद्धिके द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषयको ज्ञान की संज्ञा देना और उससे अपनेआपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व बुद्धिके द्वारा कैसे जाना जा सकता है यद्यपि साधकके पास बुद्धिके सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है? जिससे वह तत्त्व जाना जा सके? तथापि बुद्धिके द्वारा केवल जड संसारकी वास्तविकताको ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है? उस तत्त्वको बुद्धि नहीं जान सकती। उस तत्त्वको जाननेके लिये बुद्धिसे भी सम्बन्धविच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाले परमात्मतत्त्वमें निर्विकल्परूपसे स्थित हो जानेपर बुद्धिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। फिर एक आनन्दस्वरूप (जहाँ दुःखका लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है? जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्वमें निर्विकल्प (चुप) हो जानेपर आनन्दहीआनन्द है -- ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् -- जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखनेका तात्पर्य है -- जैसे आँवामें मटका पकता है? ऐसे ही जन्मसे पहले माताके उदरमें बच्चा जठराग्निमें पकता रहता है। माताके खाये हुए नमक? मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थोंसे बच्चेके शरीरमें जलन होती है। गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चेको काटते रहते हैं। प्रसवके समय माताको जो पीड़ा होती है? उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चेको होती है। इस तरह जन्मके दुःखरूप दोषोंका बारबार विचार करके इस विचाको दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःखहीदुःख है। जो जन्मता है? उसको मरना ही पड़ता है -- यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्युके समय जब प्राण शरीरसे निकलते हैं? तब हजारों बिच्छू शरीरमें एक साथ डंक मारते हों -- ऐसी पीड़ा होती है। उम्रभरमें कमाये हुए धनसे? उम्रभरमें रहे हुए मकानसे और अपने परिवारसे जब वियोग होता है और फिर उनके मिलनेकी सम्भावना नहीं रहती? तब (ममताआसक्तिके कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धनको कभी किसीको दिखाना नहीं चाहता था? जिस धनको परिवारवालोंसे छिपाछिपाकर तिजोरीमें रखा था? उसकी चाबी परिवारवालोंके हाथमें पड़ी देखकर मनमें असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्युके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।वृद्धावस्थामें शरीर और अवयवोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है? जिससे चलनेफिरने? उठनेबैठनेमें कष्ट होता है। हरेक तरहका भोजन पचता नहीं। बड़ा होनेके कारण परिवारसे आदर चाहता है? पर कोई प्रयोजन न रहनेसे घरवाले निरादर? अपमान करते हैं। तब मनमें पहलेकी बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया है?,इनको पालापोसा है? पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं इन बातोंको लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्थाके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यह शरीर व्याधियोंका? रोगोंका घर है -- शरीरं व्याधिमन्दिरम्। शरीरमें वात? कफ आदिसे पैदा होनेवाले अनेक प्रकारके रोग होते रहते हैं और न रोगोंसे शरीरमें बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यहाँ बारबार देखनेका तात्पर्य बारबार चिन्तन करनेसे नहीं है? प्रत्युत विचार करनेसे है। जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखोंको बारबार देखनेसे अर्थात् विचार करनेसे उनके मूल कारण -- उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंमें राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात् भोगोंसे वैराग्य हो जाता है। तात्पर्य है कि जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंको देखना भोगोंसे वैराग्य होनेमें हेतु है क्योंकि भोगोंके रागसे अर्थात् गुणोंके सङ्गसे ही जन्म होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21) और जो जन्म होता है? वह सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है। भगवान्ने पुनर्जन्मको दुःखालय बताया है -- पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् (गीता 8। 15)।शरीर आदि जड पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे? उनको महत्त्व देनेसे? उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं -- देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति। परमात्माका स्वरूप अथवा उसका ही अंश होनेके ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है -- चेतन अमल सहज सुखरासी (मानस 7। 117। 1)। यही कारण है कि जीवात्माको दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषोंके कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान् जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंके मूल कारण देहाभिमानको विचारपूर्वक मिटानेके लिये कह रहे हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।13.9।। इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना? यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है? वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है? ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है।अहंकार का अभाव व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है? जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें। यह प्रक्रिया भूमि जोतने के पूर्व घासपात को दूर करने के तुल्य ही है।दुखदोषानुदर्शनम् वर्तमान दशा से असन्तुष्टि ही हमें नवीन? श्रेष्ठतर और सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है। जब तक किसी राष्ट्र या समाज के लोगों में इस बात की जागरूकता नहीं आती है कि उनकी वर्तमान दशा अत्यन्त घृणित और दुखपूर्ण है? तब तक वे अपने दुखों को भूलकर अपने आप को ही उस दशा में जीने के अनुकूल बना लेते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक राजनीतिक नेता या समाज सेवक? सर्वप्रथम? लोगों को उनकी पतित और दरिद्रता की दशा का बोध कराता है। जब लोगों में इस बात की जागरूकता आ जाती है? तब वे उत्साह के साथ? श्रेष्ठतर आनन्द और समृद्ध जीवन जीने का प्रयत्न करने को तत्पर हो ज्ााते हैं।यही पद्धति सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी प्रयोज्य है। जब तक साधक को अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के बन्धनों का पूर्णतया भान नहीं होता है? तब तक वह स्वनिर्मित दुख के गर्त में पड़ा रहता है? और उससे बाहर आने के लिए कदापि प्रयत्न नहीं करता है। मानव शरीर और मन में अपने आप को परिस्थिति के अनुकूल बना लेने की अद्भुत् क्षमता है। वे अत्यन्त घृणित अवस्था को भी स्वीकार कर लेते हैं यहाँ तक कि उसी में सुख भी अनुभव करने लगते हैं।इसलिए? यहाँ साधक को अपनी वर्तमान दशा के दोषों को विचारपूर्वक देखने का उपदेश दिया गया है। एक बार जब वह अपनी बद्धावस्था को पूर्णतया समझ लेगा? तब उसमें आवश्यक आध्यात्मिक जिज्ञासा? बौद्धिक सार्मथ्य? मानसिक उत्साह और शारीरिक साहस आदि समस्त गुण आ जायेंगे? जिनके द्वारा वह आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि सरलता से कर सकेगा।जन्ममृत्युजराव्याधि में दोष का दर्शन प्रत्येक शरीर को ये विकार प्राप्त होते हैं। इनमें से प्रत्येक विकार नयेनये दुखों का स्रोत है। इन समस्त विकारों से प्राप्त होने वाले दुखों के प्रति जागरूकता आ जाने पर वह पुरुष उनसे मुक्ति पाने के लिए अधीर हो जाता है। दुख के विरुद्ध विद्रोह का यह भाव ही वह प्रेरक तत्त्व है? जो साधकों को पूर्णत्व के शिखर तक शीघ्रता से पहुँचने के लिए प्रेरित करता है।आगे कहते हैं

English Translation - Swami Gambirananda

13.9 Non-attachment with regard to objects of the senses, and also absence of egotism; seeing the evil in birth, death, old age, diseases and miseries;

English Translation - Swami Sivananda

13.9 Indifference to the objects of the senses and also absence of egoism; perception of (or reflection on) the evil in birth, death, old age, sickness and pain.

English Translation - Dr. S. Sankaranarayan

13.9. Absence of desire for sense-objects; and also absence of egotism; pondering over the evils of birth, death, old age, sickness and sorrow;

English Commentary - Swami Sivananda

13.9 इन्द्रियार्थेषु in senseobjects? वैराग्यम् dispassion? अनहङ्कारः absence of egoism? एव even? च and? जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् perception of evil in birth? old age? sickness and pain.Commentary The feeling of renunciation towards the objects of the senses is constant in the man of wisdom. He does not even like to talk about them. His senses do not run towards them.Vairagyam Indifference to the senseobjects such as sound? touch? etc.? for pleasure seen or unseen? heard or unheard (for pleasure in heaven? too).Anahankara The idea that arises in the mind I am superior to all? is egoism. Absence of this idea is Anahankara or absence of egoism.Reflection on the evils and miseries of birth? death? old age and sickness One has to dwell in the womb for nine months and to undergo the pangs of birth. These are the evils of birth. The man of wisdom never forgets the troubles of birth? death? old age? etc. He wants to avoid being born. In old age the intellect becomes dull and the memory is lost and the senses become cold and weak. There is decay of power and strength. The old man is treated with contempt by his relatives. These are the evils of old age. A sick man who suffers from piles? suffers from weakness and anaemia through loss of blood. A man suffering from malaria gets an enlarged spleen. These are the evils caused by sickness.Pain The three types of pain or afflictions are referred to in the Introduction.Pain itself is evil. Birth is painful. Birth is misery. Death is misery. Old age is misery. Sickness is misery. Birth? death? etc.? are all miseries? because they produce misery or pain.By such reflection and perception of the evil in these arises indifference to the pleasures of the body and the sensual pleasures. Then the mind turns within towards the innermost Self to attain knowledge of the Self. As the perception of the evil of pain in birth helps to obtain knowledge of the Self? it is spoken of as knowledge.

English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya's

13.9 Vairagyam, non-attachment, the attitude of dispassion; indriya-arthesu, with regard to objects of the senses, viz sound etc., with regard to seen or unseen objects of enjoyment; eva ca, and also; anahankarah, absence of egotism, absence of pride; janma-mrtyu-jara-vyadhi-duhkha-dosa-anudarsanam, seeing the evil in birth, death, old age, diseases and miseries-seeing the evil in each one of them from birth to miseries. The evil in birth consists in lying in the womb and coming out of it; seeing, i.e. thinking, of it. Similarly, thinking of the evil in death; so also, seeing in old age the evil in the form of deprivation of intelligence, strength and vigour, and becoming an object of contempt. In the same way, thinking of the evil in diseases like headtache etc.; so also with regard to miseries arising from causes physical, natural and supernatural. Or, duhkha-dosa may mean the miseries themselves which are evil. Seeing, as before, that (evil in the form of miseries) in birth etc.-birth is miserable, death is miserable, old age is miserable, diseases are miserable. Birth etc. are miserable because they cause misery; not that they are miseries in themselves. [Birth etc. are perceivable events, and as such are not miseries in themselves.] Thus, when one thinks of the evil in the form of miseries in birth etc. dispassion arises with regard to the pleasures in the body, organs and objects. From that follows the tendency of the organs towards the indwelling Self for the realization of the Self. The seeing of the evil in the form of misery in birth etc. is called Knowledge because it thus becomes a cuase of the rise of Knowledge. Moreover,

English Translation of Commentary - Dr. S. Sankaranarayan

13.9 See Comment under 13.12

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary

13.9 Absence of desire with regard to sense-objects means dispassion towards all objects different from the spiritual self by the constant awareness of the evil in them. Absence of egotism means freedom from the misconception that the self is the body, which is in reality different from the self. This is only an illustration standing for other misconceptions too. It indicates freedom from the feeling of possession towards things which do not belong to one. Perception of evil in birth, death, old age, disease and sorrow means the constant contemplation on the inevitable evil of birth, death, old age and sorrow while in the body.

Commentary - Chakravarthi Ji

Rudra Vaishnava Sampradaya - Commentary

Now in order to elucidate at length the purely spiritual ksetra-jna as the object to be realised and its distinct difference from the previously described ksetra; Lord Krishna will enumerate in these five verses the means and path to realisation of the ksetra-jna beginning with the word amanitvam meaning humility not seeking recognition, adambhitvam means to be without pride, ahimsa is not causing pain to other living beings, ksanti is tolerance in the face of insults, arjava is uprightness and straightforwardness, acaryapasana means unreserved and unmotivated service to the Vaisnava spiritual master, sauca means purity both internal and external. In the Sandilya Upanisad beginning saucam ca dvividham prohitam refers to two types of purity. External purity is obtained by rubbing earth and water while internal purity is obtained by purification of the mind. The word sthairya means steadfastness on the path of righteousness by one who has accepted it, atma-vinigraha or control over the body and the senses which uncontrolled hinder realisation of the atma or immortal soul, vairagya indriyartha means renunciation of sense objects, ahankarah means relinquishing false ego and identification of the physical body as the self, dukha-dosa-anudarsanam means dispassion by pondering the misery of samsara or the perpetual cycle of birth and death in material existence, asakti means equipoise and non-attachment to wife, sons and other loved ones, anabhisvanga means remaining even minded to s what life gives whether evil or excellence befalls one, sama-citta means to avoid both happiness or distress by temporary external circumstances. The compound words avyabhicarini bhakti means unwavering, unalloyed loving devotion to the Supreme Lord Krishna and realising the atma in all living beings, vivekta- desa-sevitam is fondness for performing austerities in solitary places, aratir jana-samsadt means indifference to mundane topics and mundane association. The words adhyatma-jnana nityatvam means always interested in spiritual knowledge and self-realisation and atma-tattva or knowledge of the immortal soul within. Continuously reflecting, contemplating and engaging ones total being in understanding the purpose and goal of human existence by comprehending the precise significance of various verses and conceptions in the Vedic scriptures to learn and realise the ultimate truth and upon achieving moksa or liberation from material existence to further attain the ultimate consciousness and eternal association with the Supreme Lord which is the highest apex of all existence. Thus these 20 virtues that have been described by Lord Krishna constitute the essence of knowledge for their attributes are the means which opens the way to this highest existence. Whatever is contrary to these 20 virtues of renowned excellence should always be rejected as it is understood to be ignorance and emphatically antagonistic to truth. This has been confirmed in by gone ages by great sages and seers such as Vyasa, Vasistha and Parasara.

Brahma Vaishnava Sampradaya - Commentary

In these five verses Lord Krishna defines the quintessential qualities and attributes to achieve the means to fulfil the highest purpose of human existence. Realisation of these 24 essential principles means knowledge through the experience of living them in conjunction with the injunctions of the Vedic scriptures. The Supreme Lord Krishna is the object of attainment for these essential principles and is the ultimate goal to be attained. Realisation through experience equates to imbibing and living these 20 principles. That by which things become realised is known as knowledge. Thus knowledge is known to be a means of realisation. Emphasis on jnana or knowledge is herein given as the goal for self-realisation.

Shri Vaishnava Sampradaya - Commentary

Amanitvam is absence of desire for honour due to reverence and humilty. Adambhitva is lack of pride due to simplicity and absence of duplicity. Ahimsa is non-violence to others by thought, word or action. Ksantih is tolerance, forbearance even when antagonised. Arjavam is sincerity and straightforwardness even to those duplicitous. Acaryopasana is unmotivated devotion to the guru who imparts spiritual knowledge. Saucam is purity in thought, word and action to enable to qualify for spiritual knowledge. Sthairya is unwavering faith in the spiritual masters teachings from the Vedic scriptures. Atma-vinigriha is self control by withdrawing the mind from pursuits other than spiritual. Vairagyam is renunciation of activities unrelated to the soul. Anahankara is absence of false ego or misidentification of the physical body as the self. Anudarsanam is reflecting on the evils of birth and inevitable old age, disease and death. Asakti is detachment from over attraction to wife, sons and family members. Anabhisvangah is neutrality in both happiness and distress. Sama-citta is equipoise of mind in both favourable and unfavourable circumstances. Bhaktih is rendering exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna. Vivikta-desa-sevitvam is fondness for solitary places out in nature for inhabiting. Adhyatma-jnana-nityatvam is to be permanently established in knowledge of the soul. Tattva-jnana-darsana is contemplating the spiritual teachings of the Vedas to gain insight. Jnana refers to that knowledge where one can achieve atma tattva or realisation of the soul. The aggregate of imbibing these 20 most excellent attributes facilitates atma tattva within the jiva or embodied being. Whatever is contrary and opposed to these 20 attributes is to be considered ignorance and detrimental to any real knowledge of the soul. Next the nature of the ksetra-jna or knower of the field will be delineated by Lord Krishna as was alluded to in chapter 10, verse 3 where He states: One who knows Me.

Kumara Vaishnava Sampradaya - Commentary

Amanitvam is absence of desire for honour due to reverence and humilty. Adambhitva is lack of pride due to simplicity and absence of duplicity. Ahimsa is non-violence to others by thought, word or action. Ksantih is tolerance, forbearance even when antagonised. Arjavam is sincerity and straightforwardness even to those duplicitous. Acaryopasana is unmotivated devotion to the guru who imparts spiritual knowledge. Saucam is purity in thought, word and action to enable to qualify for spiritual knowledge. Sthairya is unwavering faith in the spiritual masters teachings from the Vedic scriptures. Atma-vinigriha is self control by withdrawing the mind from pursuits other than spiritual. Vairagyam is renunciation of activities unrelated to the soul. Anahankara is absence of false ego or misidentification of the physical body as the self. Anudarsanam is reflecting on the evils of birth and inevitable old age, disease and death. Asakti is detachment from over attraction to wife, sons and family members. Anabhisvangah is neutrality in both happiness and distress. Sama-citta is equipoise of mind in both favourable and unfavourable circumstances. Bhaktih is rendering exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna. Vivikta-desa-sevitvam is fondness for solitary places out in nature for inhabiting. Adhyatma-jnana-nityatvam is to be permanently established in knowledge of the soul. Tattva-jnana-darsana is contemplating the spiritual teachings of the Vedas to gain insight. Jnana refers to that knowledge where one can achieve atma tattva or realisation of the soul. The aggregate of imbibing these 20 most excellent attributes facilitates atma tattva within the jiva or embodied being. Whatever is contrary and opposed to these 20 attributes is to be considered ignorance and detrimental to any real knowledge of the soul. Next the nature of the ksetra-jna or knower of the field will be delineated by Lord Krishna as was alluded to in chapter 10, verse 3 where He states: One who knows Me.

Transliteration Bhagavad Gita 13.9

Indriyaartheshu vairaagyamanahankaara eva cha; Janmamrityujaraavyaadhi duhkhadoshaanu darshanam.

Word Meanings Bhagavad Gita 13.9

amānitvam—humbleness; adambhitvam—freedom from hypocrisy; ahinsā—non-violence; kṣhāntiḥ—forgiveness; ārjavam—simplicity; āchārya-upāsanam—service of the Guru; śhaucham—cleanliness of body and mind; sthairyam—steadfastness; ātma-vinigrahaḥ—self-control; indriya-artheṣhu—toward objects of the senses; vairāgyam—dispassion; anahankāraḥ—absence of egotism; eva cha—and also; janma—of birth; mṛityu—death; jarā—old age; vyādhi—disease; duḥkha—evils; doṣha—faults; anudarśhanam—perception; asaktiḥ—non-attachment; anabhiṣhvaṅgaḥ—absence of craving; putra—children; dāra—spouse; gṛiha-ādiṣhu—home, etc; nityam—constant; cha—and; sama-chittatvam—even-mindedness; iṣhṭa—the desirable; aniṣhṭa—undesirable; upapattiṣhu—having obtained; mayi—toward Me; cha—also; ananya-yogena—exclusively united; bhaktiḥ—devotion; avyabhichāriṇī—constant; vivikta—solitary; deśha—places; sevitvam—inclination for; aratiḥ—aversion; jana-sansadi—for mundane society; adhyātma—spiritual; jñāna—knowledge; nityatvam—constancy; tat