Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 17 भगवद् गीता अध्याय 12 श्लोक 17 यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्ितमान्यः स मे प्रियः।।12.17।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 12.17) ।।12.17।।जो न कभी हर्षित होता है? न द्वेष करता है? न शोक करता है? न कामना करता है और जो शुभअशुभ कर्मोंमें रागद्वेषका त्यागी है? वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।12.17।। जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है न शोक करता है और न आकांक्षा तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है? वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।12.17।। व्याख्या --   यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति -- मुख्य विकार चार हैं -- (1) राग? (2) द्वेष? (3) हर्ष और (4) शोक (टिप्पणी प0 656.2)। सिद्ध भक्तमें ये चारों ही विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान्से कभी वियोग होता ही नहीं। संसारके साथ कभी संयोग था नहीं? है नहीं? रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। अतः संसारकी कोई,स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इस वास्तविकताका अनुभव कर लेनेके बाद (जडताका कोई सम्बन्ध न रहनेपर) भक्तका केवल भगवान्के साथ अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव अटलरूपसे रहता है। इस कारण उसका अन्तःकरण रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त होता है। भगवान्का साक्षात्कार होनेपर ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं।साधनावस्थामें भी साधक ज्योंज्यों साधनमें आगे बढ़ता है? त्योंहीत्यों उसमें रागद्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होनेवाला होता है? वह मिटनेवाला भी होता है। अतः जब साधनावस्थामें ही विकार कम होने लगते हैं? तब सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धावस्थामें भक्तमें ये विकार नहीं रहते? पूर्णतया मिट जाते हैं।हर्ष और शोक -- दोनों रागद्वेषके ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है? उसके संयोगसे और जिसके प्रति द्वेष होता है? उसके वियोगसे हर्ष होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति राग होता है? उसके वियोग या वियोगकी आशङ्कासे और जिसके प्रति द्वेष होता है? उसके संयोग या संयोगकी आशङ्कासे शोक होता है। सिद्ध भक्तमें रागद्वेषका अत्यन्ताभाव होनेसे स्वतः एक साम्यावस्था निरन्तर रहती है। इसलिये वह विकारोंसे सर्वथा रहित होता है।जैसे रात्रिके समय अन्धकारमें दीपक जलानेकी कामना होती है दीपक जलानेसे हर्ष होता है? दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले -- ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होनेसे ये चारों बातें होती हैं। परन्तु मध्याह्नका सूर्य तपता हो तो दीपक जलानेकी कामना नहीं होती? दीपक जलानेसे हर्ष नहीं होता? दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और (अँधेरा न होनेसे) प्रकाशके अभावकी चिन्ता भी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान्से विमुख और संसारके सम्मुख होनेसे शरीरनिर्वाह और सुखके लिये अनुकूल पदार्थ? परिस्थिति आदिके मिलनेकी कामना होती है इनके मिलनेपर हर्ष होता है इनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध होता है और इनके न मिलनेपर कैसे मिलें ऐसी चिन्ता होती है। परन्तु जिसको (मध्याह्नके सूर्यकी तरह) भगवत्प्राप्ति हो गयी है? उसमें ये विकार कभी नहीं रहते। वह पूर्णकाम हो जाता है। अतः उसको संसारकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।शुभाशुभपरित्यागी -- ममता? आसक्ति और फलेच्छासे रहित होकर ही शुभ कर्म करनेके कारण भक्तके कर्म अकर्म हो जाते हैं। इसलिये भक्तको शुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है। रागद्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उससे अशुभ कर्म होते ही नहीं। अशुभ कर्मोंके होनेमें कामना? ममता? आसक्ति ही प्रधान कारण हैं? और भक्तमें इनका सर्वथा अभाव होता है। इसलिये उसको अशुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है।भक्त शुभकर्मोंसे तो राग नहीं करता और अशुभकर्मोंसे द्वेष नहीं करता। उसके द्वारा स्वाभाविक शास्त्रविहित शुभ कर्मोंका आचरण और अशुभ (निषिद्ध एवं काम्य) कर्मोंका त्याग होता है? रागद्वेषपूर्वक नहीं। रागद्वेषका सर्वथा त्याग करनेवाला ही सच्चा त्यागी है।मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते? प्रत्युत कर्मोंमें रागद्वेष ही बाँधते हैं। भक्तके सम्पूर्ण कर्म रागद्वेषरहित होते हैं? इसलिये वह शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मोंका परित्यागी है।शुभाशुभपरित्यागी पदका अर्थ शुभ और अशुभ कर्मोंके फलका त्यागी भी लिया जा सकता है। परन्तु इसी श्लोकके पूर्वार्धमें आये न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति पदोंका सम्बन्ध भी शुभ (अनुकूल) और अशुभ (प्रतिकूल) कर्मफलके त्यागसे ही है। अतः यहाँ शुभाशुभपरित्यागी पदका अर्थ शुभाशुभ कर्मफलका त्यागी माननेसे पुनरुक्तिदोष आता है। इसलिये इस पदका अर्थ शुभ एवं अशुभ कर्मोंमें रागद्वेषका त्यागी ही मानना चाहिये।भक्तिमान्यः स मे प्रियः -- भक्तकी भगवान्में अत्यधिक प्रियता रहती है। उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवान्का चिन्त? स्मरण? भजन होता रहता है। ऐसे भक्तको यहाँ भक्तिमान् कहा गया है।भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम होता है? इसलिये वह भगवान्को प्रिय होता है। सम्बन्ध --   अब आगेके दो श्लोकोंमें सिद्ध भक्तके दस लक्षणोंवाला पाँचवाँ और अन्तिम प्रकरण कहते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।12.17।। वह पुरुष परम भक्त कहलाता है जिसने मन और बुद्धि की अनात्म उपाधियों तथा जगत् से अपने तादात्म्य को त्याग कर आनन्दस्वरूप आत्मा में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर ली है। अत यह स्वाभाविक ही है कि अनात्म जगत् से होने वाले सुखदुखादिक अनुभव उसे किसी भी प्रकार से न आकर्षित कर सकते हैं और न विचलित। इसे ही इस श्लोक में बताया गया है।सामान्य मनुष्य जगत् की सभी वस्तुओं को वे जैसी हैं? वैसी ही नहीं देखता। उसे कोई वस्तु प्रिय होती है? तो कोई अप्रिय। तत्पश्चात् वह प्रिय वस्तु की आकांक्षा या इच्छा करता है और अप्रिय से द्वेष। इसके पश्चात्? तीसरा द्वन्द्व उत्पन्न होता हैं प्रवृत्ति और निवृत्ति का? अर्थात् इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए और द्वेष्य वस्तु को त्यागने के लिए वह प्रयत्न करता है। इसके परिणामस्वरूप इष्ट की प्राप्ति होने पर वह हर्षित होता है? अन्यथा शोक करता है। ज्ञानी भक्त में इन समस्त विकारों और प्रतिक्रियाओं का यहाँ अभाव बताया गया है। इसका कारण यह है कि वह अपने परम आनन्दस्वरूप में स्थित होने के कारण बाह्य मिथ्या वस्तुओं में सुख और दुख की कल्पना करके उनसे राग या द्वेष नहीं करता। राग और द्वेष के द्वन्द्व के अभाव में हर्ष और शोक का स्वत अभाव हो जाता है। वह भक्त जगत् को अपनी कल्पना की दृष्टि से न देखकर यथार्थ रूप में देखता है।शभाशुभपरित्यागी जब मनुष्य अपने आनन्दस्वरूप को नहीं जानता है वह बाह्य जगत् में सुख और शान्ति की खोज करता रहता है। उस स्थिति में? अपने राग और द्वेष के कारण वस्तुओं की प्राप्ति के लिए शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप) दोनों ही प्रकार के कर्म करता है। परन्तु? भक्त के मन में राग और द्वेष नहीं होने के कारण वह शुभ और अशुभ दोनों ही से मुक्त हो जाता है।इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त सभी शब्दों का एक विशेष गूढ़ अभिप्राय है? अन्यथा केवल वाच्यार्थ को ही स्वीकार करने पर ऐसा प्रतीत होगा कि ज्ञानी भक्त कोई शव अथवा पाषाण मात्र है? क्योंकि वह न इच्छा करता है और न द्वेष न हर्षित होता है और न दुखी अर्थात् वह मृत पड़ा रहता है यह श्लोक इस बात का अत्यन्त प्रभावी उदाहरण है कि धर्मशास्त्रों के शब्दों का वाच्यार्थ उसके मर्म या प्रयोजन को स्पष्ट नहीं करता है। अत उनके लक्ष्यार्थ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।इस श्लोक में वर्णित गुणें से युक्त भक्त भगवान् को प्रिय होता है। यह श्लोक प्रस्तुत प्रकरण का चतुर्थ भाग है? जिसमें ज्ञानी भक्त के और छ लक्षण बताये गये हैं। इस प्रकार अब तक छब्बीस गुणों को बताया गया है? जो भक्त के स्वाभाविक लक्षण होते हैं।