Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 53 भगवद् गीता अध्याय 11 श्लोक 53 नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।11.53।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।11.53।। न वेदों से? न तप से? न दान से और न यज्ञ से ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता हूँ? जैसा कि तुमने मुझे देखा है।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।11.53।। भगवान् के इस विश्वरूप का दर्शन मिलना किसी के लिए भी सुलभ नहीं है। दर्शन का यह अनुभव न वेदाध्ययन से और न तप से? न दान से और न यज्ञ से ही प्राप्त हो सकता है। यहाँ तक कि स्वर्ग के निवासी देवतागण भी अपनी विशाल बुद्धि? दीर्घ जीवन और कठिन साधना के द्वारा भी इस रूप को नहीं देख पाते और सदा उसके लिए लालायित रहते हैं। ऐसा होने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने इस विराट् और आश्चर्यमय रूप को अपने मित्र अर्जुन को केवल अनुग्रह करके दर्शाया जैसा कि स्वयं उन्होंने ही स्वीकार किया था।हम इस बात पर आश्चर्य़ करेंगे कि किस कारण से भगवान् अपनी कृपा की वर्षा किसी एक व्यक्ति पर तो करते हैं और अन्य पर नहीं निश्चय ही यह एक सर्वशक्तिमान् द्वारा किया गया आकस्मिक वितरण नहीं हो सकता? जो स्वच्छन्दतापूर्वक? निरंकुश होकर बिना किसी नियम या कारण के कार्य करता रहता हो क्योंकि उस स्थिति में भगवान् पक्षपात तथा निरंकुशता के दोषी कहे जायेंगे? जो कि उपयुक्त नहीं है।श्लोक में इसका युक्तियुक्त स्पष्टीकरण किया गया है कि किस कारण से बाध्य होकर भगवान् अपनी विशेष कृपा की वर्षा कभी किसी व्यक्ति पर करते हैं? और सदा सब के ऊपर नहीं