Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 44 भगवद् गीता अध्याय 11 श्लोक 44 तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्। पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।11.44।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 11.44) ।।11.44।।इसलिये शरीरसे लम्बा पड़कर स्तुति करनेयोग्य आप ईश्वरको मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्रके? मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है? ऐसे ही हे देव आप मेरे द्वारा किया गया अपमान सहनेमें समर्थ हैं। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।11.44।। इसलिये हे भगवन् मैं शरीर के द्वारा साष्टांग प्रणिपात करके स्तुति के योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। हे देव जैसे पिता पुत्र के? मित्र अपने मित्र के और प्रिय अपनी प्रिया के(अपराध को क्षमा करता है)? वैसे ही आप भी मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।11.44।। व्याख्या --   तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीषमीड्यम् -- आप अनन्त ब्रह्माण्डोंके ईश्वर हैं। इसलिये सबके द्वारा स्तुति करनेयोग्य आप ही हैं। आपके गुण? प्रभाव? महत्त्व आदि अनन्त हैं अतः ऋषि? महर्षि? देवता? महापुरुष आपकी नित्यनिरन्तर स्तुति करते रहें? तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करनेयोग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ मेरेमें आपकी स्तुति करनेका बल नहीं है? सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणोंमें लम्बा पड़कर दण्डवत् प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसीसे आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ।पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् -- किसीका अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं -- (1) प्रमाद(असावधानी) से? (2) हँसी? दिल्लगी? विनोदमें खयाल न रहनेसे और (3) अपनेपनकी घनिष्ठता होनेपर अपने साथ रहनेवालेका महत्त्व न जाननेसे। जैसे? गोदीमें बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिताकी दाढ़ीमूँछ खींचता है? मुँहपर थप्पड़ लगाता है? कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चेकी ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं? प्रसन्न ही होते हैं। वे अपनेमें यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्रके साथ चलतेफिरते? उठतेबैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है? चाहे जैसा बोल देता है? जैसे -- तुम ब़ड़े सत्य बोलते हो जी तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो अब तो तुम बड़े आदमी हो गये हो तुम तो खूब अभिमान करने लग गये हो आज मानो तुम राजा ही बन गये हो आदि? पर उसका मित्र उसकी इन बातोंका खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरीके मित्र हैं? ऐसी हँसीदिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नीके द्वारा आपसके प्रेमके कारण उठनेबैठने? बातचीत करने आदिमें पतिकी जो कुछ अवहेलना होती है? उसे पति सह लेता है। जैसे? पति नीचे बैठा है तो,वह ऊँचे आसनपर बैठ जाती है? कभी किसी बातको लेकर अवहेलना भी कर देती है? पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्रके? मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है? ऐसे ही हे भगवन् आप मेरे अपमानको सहनेमें समर्थ हैं अर्थात् इसके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।इकतालीसवेंबयालीसवें श्लोकोंमें अर्जुनने तीन बातें कही थीं -- प्रमादात् (प्रमादसे)? अवहासार्थम् (हँसीदिल्लगीसे) और प्रणयेन (प्रेमसे)। उन्हीं तीन बातोंका संकेत अर्जुनने यहाँ तीन दृष्टान्त देकर किया है अर्थात् प्रमादके लिये पितापुत्रका? हँसीदिल्लगीके लिये मित्रमित्रका और प्रेमके लिये पतिपत्नीका दृष्टान्त दिया है। सम्बन्ध --   अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन चतुर्भुजरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।11.44।। अर्जुन स्वयं को सर्वशक्तिमान भगवान् के समक्ष पाकर अपने में वाक्कौशल और तर्क करने की सूक्ष्म क्षमता को व्यक्त हुआ पाता है। यद्यपि हिन्दुओं में पूजनीय व्यक्ति का चरणस्पर्श करके अभिवादन किया जाता है? जो कि शारीरिक कर्म है किन्तु उसका जो वास्तविक अभिप्राय है उसे हृदय के आन्तरिक भाव के रूप में प्राप्त करना होता है। अहंकार के समर्पण के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करना ही वास्तविक प्रणाम या साष्टांग प्रणिपात है। अनात्म जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंकार और तत्केन्द्रित मिथ्या कल्पनाओं के कारण अपने ही हृदयस्थ आत्मा का हमें साक्षात् अनुभव नहीं हो पाता है। जिस मात्रा में ये मिथ्या धारणाएं नष्ट हो जाती हैं? उस्ाी मात्रा में निश्चित ही? हम आत्मा के शान्त सौन्दर्य का अनुभव कर सकते हैं जो हमारा शुद्ध स्वरूप ही है। वास्तव में देखा जाये? तो अहंकार के इस समर्पण में हम अपनी अशुद्ध पाशविक वासनाओं की उस गठरी को ही अर्पित कर रहे होते हैं? जो हमारी मूढ़ता और कामुकता के कारण दुर्गन्धित होती हैअत स्वाभाविक है कि? जब कोई भक्त? भक्ति और प्रपत्ति की भावना से भगवान् के चरणों के समीप पहुँचता है? तो अपनी अशुद्धियों के लिए क्षमा याचना करता है।यहाँ अर्जुन भगवान् से अनुरोध करता है कि वे उसके किए अपराधों को ऐसे ही सहन करे? जैसे पिता पुत्र के? मित्र अपने मित्र के? प्रिय अपने प्रिया के अपराधों को सहन करता है। इन तीन उदाहरणों में वे सब घृष्टतापूर्ण अपराध सम्मिलित हो जाते हैं? जो एक मनुष्य अज्ञानवश अपने प्रभु भगवान् के प्रति कर सकता है।अर्जुन भगवान् से सामान्य रूप धारण करने तथा इस सर्वातीत? सार्वभौमिक भयंकर रूप का त्याग करने के लिए प्रार्थना करता है