Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 41 भगवद् गीता अध्याय 11 श्लोक 41 सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।11.41।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 11.41) ।।11.41।।आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए मेरे सखा हैं ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक (बिना सोचेसमझे) हे कृष्ण हे यादव हे सखे इस प्रकार जो कुछ कहा है और हे अच्युत हँसीदिल्लगीमें? चलतेफिरते? सोतेजागते? उठतेबैठते? खातेपीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं? कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है? वह सब अप्रमेयस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।11.41।। हे भगवन् आपको सखा मानकर आपकी इस महिमा को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रमाद से अथवा प्रेम से भी हे कृष्ण हे यादव हे सखे इस प्रकार जो कुछ बलात् कहा गया है।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।11.41।। व्याख्या --  [जब अर्जुन विराट् भगवान्के अत्युग्र रूपको देखकर भयभीत होते हैं? तब वे भगवान्के कृष्णरूपको भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं परन्तु जब उनको भगवान् श्रीकृष्णकी स्मृति आती है कि वे ये ही हैं? तब भगवान्के प्रभाव आदिको देखकर उनको सखाभावसे किये हुए पुराने व्यवहारकी याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान्से क्षमा माँगते हैं।]सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति -- जो बड़े आदमी होते हैं? श्रेष्ठ पुरुष होते हैं? उनको साक्षात् नामसे नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो आप? महाराज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। परन्तु मैंने आपको कभी हे कृष्ण कह दिया? कभी हे यादव कह दिया और कभी हे सखे कह दिया। इसका कारण क्या था अजानता महिमानं तवेदम् (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमाको और स्वरूपको जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं -- ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभावकी तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचासमझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं।यद्यपि अर्जुन भगवान्के स्वरूपको? महिमाको? प्रभावको पहले भी जानते थे? तभी तो उन्होंने एक अक्षौहिणी सेनाको छोड़कर निःशस्त्र भगवान्को स्वीकार किया था तथापि भगवान्के शरीरके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड यथावकाश स्थित हैं -- ऐसे प्रभावको? स्वरूपको? महिमाको अर्जुनने पहले नहीं जाना था। जब भगवान्ने कृपा करके विश्वरूप दिखाया? तब उसको देखकर ही अर्जुनकी दृष्टि भगवान्के प्रभावकी तरफ गयी और वे भगवान्को कुछ जानने लगे। उनका यह विचित्र भाव हो गया कि कहाँ तो मैं और कहाँ ये देवोंके देव परन्तु मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक? बिना सोचेसमझे? जो मनमें आया? वह कह दिया -- मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।। बोलनेमें मैंने बिलकुल ही सावधानी नहीं बरती वास्तवमें भगवान्की महिमाको सर्वथा कोई जान ही नहीं सकता क्योंकि भगवान्की महिमा अनन्त है। अगर वह सर्वथा जाननेमें आ जायगी तो उसकी अनन्तता नहीं रहेगी? वह सीमित हो जायगी। जब भगवान्की सामर्थ्यसे उत्पन्न होनेवाली विभूतियोंका भी अन्त नहीं है? तब भगवान् और उनकी महिमाका अन्त आ ही कैसे सकता है अर्थात् आ ही नहीं सकता।यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु -- मैंने आपको बराबरीका साधारण मित्र समझकर हँसीदिल्लगी करते समय? रास्तेमें चलतेफिरते समय? शय्यापर सोतेजागते समय? आसनपर उठतेबैठते समय? भोजन करते समय जो कुछ अपमानके शब्द कहे? आपका असत्कार किया अथवा हे अच्युत आप अकेले थे? उस समय या उन सखाओं? कुटुम्बीजनों सभ्य व्यक्तियों आदिके सामने मैंने आपका जो कुछ तिरस्कार किया है? वह सब मैं आपसे क्षमा करवाता हूँ -- एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्। अर्जुन और भगवान्की मित्रताका ऐसा वर्णन आता है कि जैसे दो मित्र आपसमें खेलते हैं? ऐसे ही अर्जुन भगवान्के साथ खेलते थे। कभी स्नान करते तो अर्जुन हाथोंसे भगवान्के ऊपर जल फेंकते और भगवान् अर्जुनके ऊपर। कभी अर्जुन भगवान्के पीछे दौड़ते तो कभी भगवान् अर्जुनके पीछे दौड़ते। कभी दोनों आपसमें हँसतेहँसाते। कभी दोनों परस्पर अपनीअपनी विशेष कलाएँ दिखाते। कभी भगवान् सो जाते तो अर्जुन कहते -- तुम इतने फैलकर सो गये हो? क्या कोई दूसरा नहीं सोयेगा तुम अकेले ही हो क्या कभी भगवान् आसनपर बैठ जाते तो अर्जुन कहते -- आसनपर तुम अकेले ही बैठोगे क्या और किसीको बैठने दोगे कि नहीं अकेले ही आधिपत्य जमा लिया जरा एक तरफ तो खिसक जाओ। इस प्रकार अर्जुन भगवान्के साथ बहुत ही घनिष्ठताका व्यवहार करते थे (टिप्पणी प0 603.2)। अब अर्जुन उन बातोंको याद करके कहते हैं कि हे भगवन् मैंने आपके न जाने कितनेकितने तिरस्कार किये हैं। मेरेको तो सब याद भी नहीं हैं। यद्यपि आपने मेरे तिरस्कारोंकी तरफ खयाल नहीं किया? तथापि मेरे द्वारा आपके बहुतसे तिरस्कार हुए हैं? इसलिये मैं अप्रमेयस्वरूप आपसे सब तिरस्कार क्षमा करवाता हूँ। भगवान्को,अप्रमेय कहनेका तात्पर्य है कि दिव्यदृष्टि होनेपर भी आप दिव्यदृष्टिके अन्तर्गत नहीं आते हैं।, सम्बन्ध --   अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन भगवान्की महत्ता और प्रभावका वर्णन करके पुनः क्षमा करनेके लिये प्रार्थना करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।11.41।। See commentary under 11.42