Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 8 भगवद् गीता अध्याय 10 श्लोक 8 अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।10.8।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।10.8।। मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है? इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।10.8।। व्यष्टि और समष्टि में जो भेद है वह उन उपाधियों के कारण है? जिनके माध्यम से एक ही सनातन? परिपूर्ण सत्य प्रकट होता है। इन दो उपाधियों के कारण ब्रह्म को ही क्रमश जीव और ईश्वर भाव प्राप्त होते हैं जैसे एक ही विद्युत् शक्ति बल्ब और हीटर में क्रमश प्रकाश और ताप के रूप में व्यक्त होती है। स्वयं विद्युत् में न प्रकाश है और न उष्णता। इसी प्रकार स्वयं परमात्मा में न ईश्वर भाव है और न जीव भाव। जो पुरुष इसे तत्त्वत जानता है वह अविकम्प योग के द्वारा ब्रह्मनिष्ठता को प्राप्त होता है।एक कुम्भकार कुम्भ बनाने के लिए सर्वप्रथम घट के निर्माण के उपयुक्त लचीली मिट्टी तैयार करता है। तत्पश्चात् उस मिट्टी के गोले को चक्र पर रखकर घटाकृति में परिवर्तित करता है। तीसरी अवस्था में घट को सुखाकर उसे चमकीला किया जाता है और चौथी अवस्था में उस तैयार घट को पकाकर उस पर रंग लगाया जाता है। घट निर्माण की इस क्रिया में मिट्टी निश्चय ही कह सकती है कि वह घट का प्रभव स्थान है। चार अवस्थाओं में घट का जो विकास होता है? उसका भी अधिष्ठान मिट्टी ही थी? न कि अन्य कोई वस्तु। यह बात सर्वकालीन घटों के सम्बन्ध में सत्य है। किसी भी घट की उत्पत्ति? वृद्धि और विकास उसके उपादान कारणभूत मिट्टी के बिना नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक ही चैतन्यस्वरूप परमात्मा? ईश्वर और जीव के रूप में प्रतीत होता है।जिस पुरुष ने विवेक के द्वारा व्यष्टि और समष्टि के इस सूक्ष्म भेद को समझ लिया है? वही पुरुष अपने मन को बाह्य जगत् से निवृत्त करके इन दोनों के अधिष्ठान स्वरूप आत्मा में स्थिर कर सकता है। मन के इस भाव को ही यहाँ इस अर्थपूर्ण शब्द भावसमन्विता के द्वारा दर्शाया गया है।प्रेम या भक्ति का मापदण्ड है पुरुष की अपनी प्रिय वस्तु के साथ तादात्म्य करने की क्षमता। संक्षेपत? प्रेम की परिपूर्णता इस तादात्म्य की पूर्णता में है। जब एक भक्त स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि एक परमात्मा ही समष्टि और व्यष्टि की अन्तकरण की उपाधियों के माध्यम से मानो ईश्वर और जीव बन गया है? तब वह पराभक्ति को प्राप्त भक्त कहा जाता है।जिस भक्ति के विषय में पूर्व श्लोक में केवल एक संकेत ही किया गया था? उसी को यहाँ क्रमबद्ध करके एक साधना का रूप दिया गया है? जिसके अभ्यास से उपर्युक्त ज्ञान प्रत्येक साधक का अपना निजी और घनिष्ट अनुभव बन सकता है।