Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 32 भगवद् गीता अध्याय 10 श्लोक 32 सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन। अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 10.32) ।।10.32।।हे अर्जुन सम्पूर्ण सर्गोंके आदि? मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्वनिर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।10.32।। हे अर्जुन सृष्टियों का आदि? अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ? मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या और विवाद करने वालों में (अर्थात् विवाद के प्रकारों में) मैं वाद हूँ।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।10.32।। व्याख्या --   सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहम् -- जितने सर्ग और महासर्ग होते हैं अर्थात् जितने प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है? उनके आदिमें भी मैं रहता हूँ? उनके मध्यमें भी मैं रहता हूँ और उनके अन्तमें (उनके लीन होनेपर) भी मैं रहता हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ वासुदेव ही है। अतः मात्र संसारको? प्राणियोंको देखते ही भगवान्की याद आनी चाहिये।अध्यात्मविद्या विद्यानाम् -- जिस विद्यासे मनुष्यका कल्याण हो जाता है? वह अध्यात्मविद्या कहलाती है (टिप्पणी प0 562)। दूसरी सांसारिक कितनी ही विद्याएँ पढ़ लेनेपर भी पढ़ना बाकी ही रहता है परन्तु इस अध्यात्मविद्याके प्राप्त होनेपर पढ़ना अर्थात् जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये भगवान्ने इसको अपनी विभूति बताया है।वादः प्रवदतामहम् -- आपसमें जो शास्त्रार्थ किया जाता है? वह तीन प्रकारका होता है --,(1) जल्प -- युक्तिप्रयुक्तिसे अपने पक्षका मण्डन और दूसरे पक्षका खण्डन करके अपने पक्षकी जीत और दूसरे पक्षकी हार करनेकी भावनासे जो शास्त्रार्थ किया जाता है? उसको जल्प कहते हैं।(2) वितण्डा -- अपना कोई भी पक्ष न रखकर केवल दूसरे पक्षका खण्डनहीखण्डन करनेके लिये जो शास्त्रार्थ किया जाता है? उसको वितण्डा कहते हैं।(3) वाद -- बिना किसी पक्षपातके केवल तत्त्वनिर्णयके लिये आपसमें जो शास्त्रार्थ (विचारविनिमय) किया जाता है उसको वाद कहते हैं।उपर्युक्त तीनों प्रकारके शास्त्रार्थोंमें वाद श्रेष्ठ है। इसी वादको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।10.32।। मैं सृष्टियों का आदि? अन्त और मध्य भी हूँ अपनी विभूतियों का वर्णन प्रारम्भ करने के पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण का सामान्य कथन ही यहाँ प्रतिध्वनित होता है। वहाँ उन्होंने यह बताया है कि वे किस प्रकार प्रत्येक वस्तु और प्राणी की आत्मा हैं जबकि यहाँ वे सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठान के रूप में स्वयं का परिचय करा रहे हैं।कोई भी पदार्थ अपने मूल उपादानस्वरूप ऋ़ा त्याग करके नहीं रह सकता। स्वर्ण के बिना आभूषण? समुद्र के बिना तरंग और मिट्टी के बिना घट का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। समस्त नाम और रूपों में उनके उपादान कारण का होना अपरिहार्य है। उपर्युक्त कथन के द्वारा भगवान् अपने सर्वभूतात्म भाव की दृष्टि से कहते हैं कि वे सृष्टियों के आदि? मध्य और अवसान हैं। विश्व की उत्पत्ति? स्थिति और लय ये सब उनमें ही होते हैं।जिस ज्ञानस्वरूप (चित्स्वरूप) के बिना अन्य वस्तुओं के ज्ञान कदापि संभव नहीं हो सकते? उस चैतन्यस्वरूप का ज्ञान सब ज्ञानों का राजा होना उपयुक्त ही है। सूर्यप्रकाश में ही समस्त वस्तुयें प्रकाशित होती हैं। वस्तुओं पर सूर्यप्रकाश के परावर्तित होने से ही वे दर्शन के योग्य बन जाती हैं। स्वाभाविक ही? भौतिक वस्तुओं के दर्शन में सूर्य सब नेत्रों का नेत्र है। उसी प्रकार? सब विद्याओं में अध्यात्मविद्या को राजविद्या या सर्वविद्याप्रतिष्ठा कहा गया है।मैं विवाद करने वालों में वाद हूँ श्रीशंकराचार्य के अनुसार? यहाँ प्रयुक्त प्रवदताम् (विवाद करने वालों में) शब्द से तात्पर्य विवाद के प्रकारों से है? व्यक्तियों से नहीं। जीवन के सभी क्षेत्रों में विवाद के तीन प्रकार हैं जल्प? वितण्डा और वाद। जल्प में? एक व्यक्ति प्रमाण और तर्क के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना तथा विरोधी पक्ष का छल आदि प्रकारों से खण्डन करता है। जब कोई एक व्यक्ति अपने पक्ष को स्थापित करता है? और अन्य व्यक्ति छल आदि से केवल उसका खण्डन ही करता रहता है? परन्तु अपना कोई पक्ष स्थापित नहीं करता? तब उसे वितण्डा कहते हैं। गुरु शिष्य के मध्य अथवा अन्यों के मध्य तत्त्वनिर्णय के लिए जो युक्तियुक्त विवाद होता है उसे वाद कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जल्प और वितण्डा में उभय पक्ष का लक्ष्य केवल जयपराजय अथवा शक्ति परीक्षा मात्र होता है? जब कि वाद का लक्ष्य तथा फल तत्त्व निर्णय है। अत? भगवान् कहते हैं कि? मैं विवादों के प्रकारों में वाद हूँ।आगे