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Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 2

भगवद् गीता अध्याय 10 श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।10.2।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।10.2।। मेरी उत्पत्ति (प्रभव) को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।10.2।। जब कभी हम प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुभव के द्वारा कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं? तब हम उसे उस विषय के ज्ञाता पुरुषों से समझना चाहते हैं। उन्हें आप्त पुरुष कहा जाता है। किन्तु ब्रह्मविद्या के क्षेत्र में आत्मप्रशिक्षण की यह अप्रत्यक्ष विधि भी कठिन है? क्योंकि? भगवान् कहते हैं? मेरी उत्पत्ति को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन।बाद में? भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही स्पष्ट करेंगे कि महर्षि शब्द से उनका निश्चित अभिप्राय क्या है। ये महर्षिगण पुराणों में बताये हुए भृगु आदि सप्त ऋषि नहीं है। सप्त ऋषियों का दार्शनिक अर्थ निम्न प्रकार से है। जब अनन्तस्वरूप ब्रह्म केवल आभासिक रूप से समष्टि बुद्धि (महत् तत्त्व) के साथ तादात्म्य को प्राप्त कर अपना एक व्यक्तित्व प्रकट (अहंकार) करता है? तब वह स्वयं ही स्वयं को? स्वयं के आनन्द के लिए इस विषयात्मक जगत् में प्रपेक्षित करता है अथवा व्यक्त करता है। वास्तव में? ये भोग के विषय सूक्ष्म होते हैं? जिन्हें तन्मात्रा कहते हैं। इन सबको पुराणों में सप्त ऋषि कह कर विभिन्न नाम भी दिये गये हैं वे सप्तर्षि हैं महत् तत्त्व? अहंकार और पंचतन्मात्राएं। पुराणों में इन्हें मानवीय रूप दे दिया गया है। संयुक्त रूप में ये सप्तर्षि मनुष्य के बौद्धिक और मानसिक जीवन के तथा सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण के प्रतीक हैं।देव (सुर) शब्द का वाच्यार्थ स्वर्ग के निवासी यहाँ अभिप्रेत नहीं है? यद्यपि वह अर्थ भी संभव है। देव शब्द द्यु धातु से बनता है? जिसका अर्थ है प्रकाशित करना। अत हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे देव हैं? जो हमारे असंख्य अनुभवों के लिए विषयों को प्रकाशित करते हैं।इसलिए यह कथन उचित ही है कि चिन्मय स्वरूप मैं सब देवगणों तथा महर्षिजनों का आदिकारण हूँ। अर्थात् आत्मा हमारे स्थूल और सूक्ष्म? शारीरिक और मानसिक जीवन का अधिष्ठान है। यद्यपि वे इस सत्य आत्मा में ही स्थित रहते हैं? किन्तु वे मेरे प्रभव को नहीं जान सकते।चैतन्य आत्मा हमारे हृदय में द्रष्टा के रूप में स्थित है? इसलिए वह इन्द्रियों का दृश्य विषय? या मन की भावना अथवा बुद्धि के ज्ञान का विषय कदापि नहीं बन सकता।तब क्या यह सत्य है कि सम्पूर्ण जगत् के आदिकारण इस आत्मा का ज्ञान और अनुभव किसी को भी नहीं हो सकता है ऐसी आशंका को दूर करने के लिए भगवान् कहते हैं --