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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 28

भगवद् गीता अध्याय 1 श्लोक 28

अर्जुन उवाच
कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 1.28)

।।1.28 1.30।।अर्जुन बोले हे कृष्ण युद्धकी इच्छावाले इस कुटुम्बसमुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमितसा हो रहा है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।1.28 1.29।।अर्जुन ने कहा हे कृष्ण युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।1.28।। व्याख्या    दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्   अर्जुनको  कृष्ण  नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  पार्थ  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें  कृष्ण  और  पार्थ  नामका उल्लेख किया है  यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः  (18। 78)।धृतराष्ट्रने पहले  समवेता युयुत्सवः  कहा था और यहाँ अर्जुनने भी  युयुत्सुं समुपस्थितम्  कहा है परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं ऐसा भेद है अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  मामकाः  और  पाण्डवाः  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है अतः अर्जुनने यहाँ  स्वजनम्  कहा है जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है शोक है परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी।अबतक  दृष्ट्वा  पद तीन बार आया है  दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्  (1। 2)  व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्  (1। 20) और यहाँ  दृष्ट्वेमं स्वजनम्  (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है। सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः   अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है दुःख हो रहा है। उस चिन्ता दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ पैर मुख आदि एकएक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है सारा शरीर थरथर काँप रहा है शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है त्वचामें सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये यह भी नहीं सूझ रहा है यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। सम्बन्ध   पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।1.28।। मनसंभ्रम के कारण मानसिक रोगी के शरीर में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को यहाँ विस्तार से बताया गया है। जिसे संजय ने करुणा कहा थाउसकी वास्तविकता स्वयं अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होती है। वह कहता है इन स्वजनों को देखकर . मेरे अंग कांपते हैं. इत्यादि।आधुनिक मनोविज्ञान में एक व्याकुल असन्तुलित रोगी व्यक्ति के उपर्युक्त लक्षणों वाले रोग का नाम चिन्ताजनित नैराश्य की स्थिति दिया गया है।